Ticker

6/recent/ticker-posts

Kohinoor (कोहिनूर) : एक अमूल्य रत्न | भारत से ब्रिटिश राज तक की कोहिनूर का सफर

हीरे विश्व में सबसे पहले भारत में पाए गए। जिसके कई साक्ष्य चौथी शताब्दी के व्यापार में मिलते हैं। माना जाता है कि भारत से हीरों की खरीद फरोख्त सिल्क रूट के माध्यम से बाकी के देशों में होती थी, लेकिन अब तक कोई ऐसे हीरे का टुकड़ा नहीं मिला था। जिसे देखकर लोग बस देखते ही रह जाए। वक्त बीतने के साथ हीरा बेशकीमती स्टोन के तौर पर अपनी जगह बना चुका था। 13 शताब्दी में जहां पूरी दुनिया में एक भी हीरे की खान नहीं थी, तभी भारत में एक ऐसे हीरे की खोज हुई। जिसकी चमक के आगे बड़े-बड़े राजाओं की आंखें चौंदी आ गई थी। यह हीरा बेहद ही अनोखा था। तब कहां किसी को पता था कि यह हीरा आने वाले दिनों में इतना यूनिक और बेशकीमती होगा कि जो भी इसे देखेगा बस देखता ही रह जाएगा। जैसे-जैसे इसकी पॉपुलर बढ़ती गई, वैसे ही उस समय के राजाओं में इसे हासिल करने की होड़ बढ़ गई।

Kohinoor (कोहिनूर) : एक अमूल्य रत्न | भारत से ब्रिटिश राज तक की कोहिनूर का सफर
Kohinoor (कोहिनूर) : एक अमूल्य रत्न

आज बात करेंगे कोहिनूर (Kohinoor) की। भारत की कोक से निकला वह हीरा जो आज ब्रिटेन की धरोहर बना हुआ है। ऐसा नहीं है कि कभी भारत की शान में चार चांद लगाने वाला कोहिनूर रातों-रात ब्रिटेन चला गया या फिर उन्होंने इसे किसी युद्ध में छीन लिया। कोहिनूर की कहानी बहुत लंबी है। भारत में एक रजवाड़े से होते हुए दूसरे रजवाड़े की सैर करते हुए फाइनली यह हीरा ब्रिटिश क्राउन को सो कॉल्ड गिफ्ट के तौर पर दे दिया गया था। यहां एक और बड़ी मजेदार बात यह है कि मुगल सल्तनत के ताजो तख्त से होते हुए क्वीन विक्टोरिया के सर का ताज बनने तक के सफर में इस हीरे को कभी खरीदा या बेचा नहीं गया। शायद इसी वजह से आज तक यह हीरा बेशकीमती माना जाता रहा है। लेकिन कोहीनूर की एक अपनी कहानी रही है इसकी चमक में कई लोगों का खून लगा हुआ है और इसकी चाहत के कई किस्सों से दुनिया आज तक बेखबर है तो चलिए आपको ले चलते हैं। कोहिनूर की चमकीली कहानियों में और आपको बताते हैं। इसके वोह किस्से जो इसकी चमक के पीछे गुम हो गए हैं।

कोहिनूर की उत्पत्ति

कोहीनूर के उत्पत्ति के बारे में कई तरह की कहानिया प्रचलित है। ऐसी कहानी अनुसार इस हीरे को करीब 5000 साल पहले जामवंत जी ने भगवान श्री कृष्ण को दिया था। महाभारत काल में इस हीरे को सनमंतक मणि के नाम से जाना जाता था, लेकिन इसके बारे में कहानी यही खत्म नहीं होती जहां कोहीनूर को महाभारत काल का बताया जाता है तो वही यह भी कहा जाता है कि इस हीरे को 3200 साल पहले एक नदी में पाया गया था। खैर सच्चाई जो भी हो लेकिन आज तक इस हीरे की ओरिजिन के बारे में एक्यूरेट और वैलिड इंफॉर्मेशन जुटाई नहीं जा सकी है। कोहिनूर अपने खोजे जाने के वक्त दुनिया का सबसे बड़ा हीरा था और उसका कुल वजन 793 कैरेट्स के आसपास था। बाद में इस हीरे को कई बार तराशा गया है जिसकी वजह से इसका वजन घटकर 105.6 कैरेट के आसपास रह गया है। हालांकि कई बार तराशे जाने के बावजूद कोहिनूर अब भी दुनिया के सबसे बड़े तराशे हुए हीरो में से एक बना हुआ है। कई दावों के हिसाब से कोहीनूर की कहानी 13वीं शताब्दी में शुरू होती है। 

जब आज के आंध्र प्रदेश में काकतीय डायनेस्टी का राज था। उन्हीं दिनों वहां के गोल कोंडा में कोई एक ही खदान थी। जिनकी खुदाई की जा रही थी। यही के कोलूर माइंड्स में कोहिनूर की खोज हुई कोहिनूर के खोजे जाने के वक्त भारत में राजा महाराजाओं का दौर हुआ करता था, इसलिए जब भी कोई बेशकीमती चीज खोजी जाती। उसे राजा के पास पहुंचा दिया जाता था। इसी तरह कोहीनूर के मिलते ही उसे काकतीय डायनेस्टी के राजा के पास पहुंचा दिया गया। राजा इसकी सुंदरता और चमक से बेहद प्रभावित हुए और इस हीरे को उन्होंने अपनी कुलदेवी भद्रकाली की बाई आंख में लगवा दिया। जल्दी ही इसकी चर्चा पूरे भारत में हो लगी और इसकी खबर दिल्ली सल्तनत के राजा अलाउद्दीन खिलजी के पास भी पहुंची। उन दिनों खिलजी अपने साम्राज्य के विस्तार के बड़े सपने देख रहा था और भारत के दक्षिणी हिस्से में भी अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। कुछ महीनों बाद मलिक काफूर की कमांड में खिलजी की सेना ने काकतीय डायनेस्टी पर हमला कर कोहिनूर को लूट लिया। जिसके बाद कोहिनूर अलाउद्दीन खिलजी के पास आ गया और दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बन गया। आगे चलकर खिलजी हों को हराकर तुगल कों ने दिल्ली सल्तनत पर अपना कब्जा जमा लिया, तब तक कोहिनूर इतना पॉपुलर हो गया था कि जब भी कोई राजा दूसरे को हराता व हारने वाले राजा से कोहिनूर ले लेता। इसी तरह कोहिनूर भी खिलजी हों से होकर तुगल कों के पास चला गया। तुगल कों के पास पहुंचने के बाद कोहिनूर फिरोज शाह तुगलक के पास आ पहुंचा। आगे चलकर तुगल कों से होते हुए कोहीनूर मालवा के राजा होशंग शाह के हाथों में आ गया। मालवा का राजा बनने के बाद होशंग शाह अपने पड़ोसी राज्य ग्वालियर को जीतना चाहता था। उस समय ग्वालियर पर तोमर राजा डोंगेन्द्र सिंह शासन कर रहे थे। होशंग शाह ने मौका पाते ही ग्वालियर पर अटैक कर दिया, लेकिन वो डोंगेन्द्र सिंह से बुरी तरह हार गया। अपनी जान बचाने के लिए होशंग शाह ने कोहिनूर समेत अपनी सारी संपत्ति डोंगेन्द्र सिंह को सौंप दी। इस घटना का जिक्र बाबर नामा में भी मिलता है, जो इस हीरे का पहला डॉक्यूमेंटेशन भी है। डोंगेन्द्र सिंह से होते हुए यह हीरा अंतिम तोमर शासक राजा विक्रम आदित्य के पास पहुंच गया। उस समय तक दिल्ली सल्तनत की सत्ता इब्राहिम लोधी के हाथों में आ गई थी। इब्राहिम लोधी ने भी कोहिनूर के बड़े चर्चे सुन रखे थे। इसलिए उसने अपने साम्राज्य का विस्तार करने और इस हीरे को पाने के लिए ग्वालियर पर अटैक कर दिया। इस युद्ध में राजा विक्रमादित्य की हार हुई हार के बाद राजा विक्रमादित्य को कोहिनूर समेत अपनी सारी संपत्ति इब्राहिम लोधी के आगरा किले में रखनी पड़ी, लेकिन इब्राहिम लोधी की जीत की यह खुशी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई और केवल एक साल बाद ही उसे अपनी सत्ता और कोहिनूर दोनों को बाबर के हाथों गवाना पड़ा।

Kohinoor (कोहिनूर) : एक अमूल्य रत्न | भारत से ब्रिटिश राज तक की कोहिनूर का सफर

मुगल दरबार में कोहिनूर

दरअसल उस दौरान बाबर दिल्ली पर राज करने के सपने संजोए 1519 से ही भारत पर कई बार आक्रमण कर चुका था, लेकिन उसे हर बार यहां से हार कर लौटना पड़ता था। 1526 में बाबर ने एक बार फिर से भारत पर आक्रमण किया। इस बार उसकी लड़ाई इब्राहिम लोधी के साथ पानीपत में हुई। कई दिनों तक चले इस घमासान युद्ध में इब्राहिम लोधी मारे गए। इस तरह कोहीनूर बाबर के कब्जे में आ गया। बाबर ने कोहिनूर से प्रभावित होकर अपनी ऑटोबायोग्राफी बाबर नामा में इसकी खूब चर्चा की।

उसने कोहिनूर की तारीफ करते हुए लिखा कि यह हीरा इतना बेशकीमती है, कि इसकी कीमत से पूरी दुनिया को एक दिन का खाना खिलाया जा सकता है। हालांकि बाबर ने बाबर नामा में इस हीरे का नाम कहीं भी कोहिनूर मेंशन नहीं किया था। जिससे यह साफ होता है कि इस हीरे का नाम उस समय तक कोहीनूर नहीं था। बाबर के बाद हुमायूं मुगल डायनेस्टी का अगला राजा बना और सत्ता के साथ कोहिनूर भी उसके पास आ गया। सत्ता मिलने के कुछ साल बाद ही हुमायूं का एंपायर बिखरने लगा। उसके छोटे भाइयों ने ही उसके खिलाफ विद्रोह कर दिया। जिस कारण उसे अपना एंपायर अपने भाइयों के बीच बांटना पड़ा। अपने भाइयों से निपटने के बाद उसने अपने एंपायर को यूनाइट करना स्टार्ट ही किया था कि उस पर अफगान शासक शेरशाह शूरी ने अटैक कर दिया। दो सालों में दोनों के बीच चौसा और कन्नौज में दो बैटल लड़ी गई। दोनों ही बार हुमायूं को हार का सामना करना पड़ा और उसे अपना सब कुछ छोड़कर ईरान भागकर राजा तैहमास्प के यहां शरण लेनी पड़ी। तैहमास्प ने उसका स्वागत करते हुए कई सालों तक उसे अपने संरक्षण में रखा। उनके इस व्यवहार से खुश होकर हूमायू ने कोहिनूर उनको उपहार में सौंप दिया। इस तरह कोहिनूर पहली बार भारत से बाहर ईरान पहुंच गया।

ईरान के राजा तैहमास्प के पास कोहिनूर लगभग 3 सालों तक रहा। इसके बाद कोहिनूर एक बार फिर से भारत लौट आया, जहां अब तक कई राजाओं ने कोहिनूर को हथियाने के लिए हजारों लाशें बिछा दी थी। तो वही राजा तह मास की इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उन्होंने इसे अहमदनगर के राजा और अपने गहरे दोस्त निजाम शाह को गिफ्ट कर दिया, जो कोहीनूर के दीवाने थे भारत आने के बाद कोहीनूर कुछ सालों तक निजाम शाह के पास रहा और फिर उनसे होते हुए, गोलकुंडा के राजा कुतुब शाह के पास पहुंच गया। साल 1656 में यह हीरा किसी तरह कुतुब शाह के प्रधानमंत्री मीर जुमला के हाथ लग गया जिसका इस्तेमाल उसने शाहजाहाँ के करीब जाने के लिए किया। शाहजाहाँ को आकर्षक चीजों का बहुत शौक था। इसी शौक के चलते उसने पीकॉक थ्रोन (मयूर सिंहासन) बनवाना शुरू किया। 

कहा जाता है कि इस पीकॉक थ्रोन को बनवाने में शाहजहां ने ताजमहल से भी दोगुना खर्चा किया था। उसने सिंहासन में कई तरह के डायमंड, गोल्ड और बेशकीमती स्टोंस लगवाए और कोहिनूर को इस सिंहासन के सबसे ऊपरी हिस्से में जगाह दी। लेकिन उस सिंहासन पर शाहजाहां ज्यादा वक्त तक नहीं बैठ पाया और आगे चलकर उसके ही बेटे औरंगजेब ने उसे अरेस्ट करवाकर जेल में डलवा दिया। औरंगजेब ने अपने पिता की सत्ता हथियाने के साथ-साथ कोहिनूर को भी हड़प लिया। औरंगजेब कोहिनूर को देखने के बाद इससे बहुत आकर्षित हुआ और उसने इसे और भी अट्रैक्टिव बनाने के लिए एक मशहूर जोहरी को इसे तराशने का काम सौंप दिया। लेकिन तराशने के दौरान कोहीनूर का काफी हिस्सा टूट गया, जिससे यह 793 कैरेट की जगह महज 186 कैरेट का रह गया। औरंगजेब को जब इसकी खबर लगी तो वह बहुत गुस्सा हुआ और उसने उस जोहरी पर भारी भरकम जुर्माना लगाकर इसे अपने खजाने में रखवा दिया। जहां कोहिनूर अपनी चमक के लिए मशहूर था, तो वही इसके बारे में यह भी कहा जाता है कि इस हीरे को जिसने भी अपने पास रखा उसने शुरुआत में हर जगह जीत का परचम लहराया। लेकिन बीतते समय के साथ यह हीरा ही उसकी बर्बादी का कारण बना। आने वाले सालों में लोगों ने इसे सच होते हुए भी देखा। खोजे जाने के बाद से यह हीरा जिस भी राजा के पास गया, उसका एंपायर बहुत तेजी के साथ बिखर कर बर्बाद हो गया। मुगल बादशाह बाबर, हुमायूं और शाहजाहां के पास कोहिनूर रहा था और उन्हें अपने शासन के अंत में सबसे बुरे दौर से गुजरना पड़ा। जबकि हीरा कभी भी मुगल सम्राट अकबर के पास नहीं रहा और वह मुगलों में सबसे लोकप्रिय शासक रहे। मुगलों के बिखरते साम्राज्य के बीच कोहिनूर इसी डायनेस्टी के राजा मोहम्मद शाह रंगीला के पास पहुंचा। जिन्हें बहादुर शाह रंगीला के नाम से भी जाना जाता था। मुगल इस दौरान कमजोर पड़ चुके थे। इसी का फायदा उठाते हुए ईरान के शासक नादिर शाह ने आक्रमण कर बहादुर शाह रंगीला के अंपायर को तहस-नहस कर दिया। उसने पूरी दिल्ली में भयंकर कत्लेआम मचाया जो भी उसके रास्ते में आया। वह अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठा चंद दिनों के अंदर ही नादिर शाह ने मुगलों की सारी संपत्ति लूट ली और शाहजाहां द्वारा बनवाया गया मयूर सिंहासन भी अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन अब तक उसे वो कोहिनूर नहीं मिला था। जिसकी चमक के चर्चे उसने सुन रखे थे। दरअसल कोहिनूर उसके हाथ अभी तक इसलिए नहीं लगा था, क्योंकि बहादुर शाह रंगीला उसे अपनी पगड़ी में छुपा कर रखता था। नादिर शाह को जब इस बात की खबर लगी तो उसने इसे हासिल करने के लिए बहादुर शाह से अपनी जीत की खुशी मनाने के लिए एक दूसरे की पगड़ी पहनने को कहा। बहादुर शाह जो पहले ही जंग हार चुके थे वो अब नादिर शाह की बात ना मानकर अपनी जिंदगी नहीं गवाना चाहते थे। इसलिए उन्हें अपनी पगड़ी उतारने के लिए मजबूर होना पड़ा जैसे ही बहादुर शाह ने अपनी पगड़ी निकाली हीरा जमीन पर गिर पड़ा। जमीन पर पर गिरते ही उसकी रोशनी चारों तरफ फैल गई। इसे देखकर नादिर शाह चंबे में पड़ गया और उसके मुंह से कोहिनूर शब्द निकल पड़ा। जिसका मतलब था "माउंटेन ऑफ लाइट"। तब से ही यह हीरा कोहिनूर के नाम से जाना जाने लगा।

Kohinoor (कोहिनूर) : एक अमूल्य रत्न | भारत से ब्रिटिश राज तक की कोहिनूर का सफर

भारत से बाहर कोहिनूर का सफर

कुछ दिनों के बाद नादिर शाह भारत से कोहिनूर समेत बहुत सारी संपत्ति लूटकर अपनी सेना के साथ ईरान लौट आया। वक्त गुजर जाने के बावजूद उसका कोहीनूर को लेकर आकर्षण कम नहीं हुआ। वो कोहिनूर का इतना दीवाना था कि उसे हर वक्त अपनी नजरों के सामने रखना चाहता था, इसलिए नादिर शाह ने कोहिनूर को अपनी बाह पर बांधना शुरू कर दिया। कुछ सालों तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन फिर कोहिनूर ने नादिर शाह के अंपायर पर भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। उसकी जिंदगी इस कदर बर्बाद हुई कि अंतिम समय में वह अपना दिमागी संतुलन खो बैठा और अपने ही लॉयल बॉडीगार्ड्स पर शक करने लगा। इस शक के चलते उसने अपने सभी कमांडर्स को हटाकर उनकी जगह अहमद शाह दुर्रानी को कमांडर अपॉइंट्स कर, अपने सारे पुराने कमांडर और बॉडीगार्ड्स को खत्म करने का आदेश दे दिया, लेकिन नादिर शाह की प्लानिंग की खबर उसके पुराने बॉडीगार्ड्स को लग गई। जिसके बाद सालार खान और मोहम्मद खान काजर नाम के दो बॉडीगार्ड्स ने उसी रात नादिर शाह की हत्या कर दी।

आगे चलकर नादिर शाह के फाइनेंशियल ऑफिसर मोहम्मद काजिम मारवी ने आलम अराय नादरी नाम से एक किताब लिखी। जिसमें इस हीरे का नाम कोहीनूर मेंशन किया गया था, जो इस हीरे का कोहिनूर नाम होने का पहला पुखता सबूत है। नादिर शाह की मौत के बाद उसके एंपायर पर अहमद शाह दुर्रानी का कब्जा हो गया और वो कोहिनूर को ईरान से अफगानिस्तान ले गया। इस तरह कोहिनूर भारत से ईरान और फिर अफगानिस्तान पहुंच गया।इसके बाद अफगानिस्तान में ही अहमद शाह दुर्रानी के ही वंशज शाह शूजा दुर्रानी के पास कोहिनूर आ गया।

बदलते वक्त के साथ राज सिंहासन बदल जाते। कोहिनूर पर मालिकाना हक रखने वाले राजा बदल जाते, लेकिन एक चीज जो नहीं बदलती थी तो वो थी, कोहिनूर की चमक और उसको लेकर लोगों का आकर्षण एक बार शाह सूजा की पत्नी वफा बेगम से किसी ने कोहिनूर की प्राइस प्रेडिक्शन करने का कहा। बेगम ने इसका जवाब देते हुए कहा कि अगर चार ताकतवर पहलवानों से चारों दिशाओं में एक-एक पत्थर फिवाआ जाए ओर एक पत्थर आकाश की ओर उछाल दिया जाए। इसके बाद पांचों पत्थरों ने जितना डिस्टेंस तय किया उस डिस्टेंस को अगर गोल्ड से भर दिया जाए तो भी उस पूरे सोने की कीमत को ही नूर जितनी नहीं हो सकती। बेगम की इस बात से कल्पना की जा सकती है कि आखिर कोहिनूर क्यों इतना प्राइसलेस और पॉपुलर था। सत्ता और कोहिनूर को पाने के बाद शुरू-शुरू में शाह शुजा दुर्रानी के शासनकाल में सब ठीक चल रहा था। उसने आसपास पास के कई क्षेत्रों को जीत कर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी, लेकिन एकाएक उसके परिवार में फूट पड़ गई और उसके भाइयों ने ही उसके खिलाफ विद्रोह करके उसे गद्दी से उतार फेंका। शाह शूज दुर्रानी को अपनी पत्नी के साथ अफगानिस्तान से भागकर लाहौर आना पड़ा। जहां राजा रणजीत सिंह ने उन्हें शरण दी। महाराजा रणजीत सिंह ने ना केवल उसे लाहौर में रहने की इजाजत दी बल्कि उसे फिर से अपनी सत्ता हासिल करने के लिए मोटिवेट भी किया। दोबारा सत्ता हासिल करने के क्रम में उसने अटक पर हमला किया, लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। अटक के शासक जहान दादखान ने उसे अरेस्ट कर लिया और श्रीनगर की जेल में बंद कर दिया। जैसे ही इसकी खबर महाराजा रणजीत सिंह को लगी। उन्होंने अपने कमांडर महकम चंद को उसे छुड़वाने के लिए कश्मीर भेजा। जिसके बाद महकम चंद उसे रिहा करवाकर लाहौर ले आए। महाराजा रणजीत सिंह द्वारा अपने हस्बैंड की जान बचाने से वफा बेगम बहुत खुश हुई और उन्होंने कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह को गिफ्ट के तौर पर दे दिया।

Kohinoor (कोहिनूर) : एक अमूल्य रत्न | भारत से ब्रिटिश राज तक की कोहिनूर का सफर

सिख साम्राज्य का गौरव

महाराजा रणजीत सिंह सिख एंपायर के राजा थे। उस समय भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी, इसलिए उनके घर कई अंग्रेज अफसरों का आना जाना लगा रहता था। कोहिनूर हासिल करने के बाद जब भी अंग्रेज अफसर उनके घर जाते, वो बड़ी शान से कोहिनूर को दिखाकर उसकी प्रशंसा किया करते थे। वो अक्सर दिवाली, दशेहरा जैसे बड़े त्यौहार पर इसे अपने हाथ में बांधकर पब्लिक के बीच घूमा करते थे। कोहिनूर उन्हें इतना प्यारा था कि व कई बार युद्ध के दौरान भी इसे अपने साथ ले जाया करते थे। शुरुआती दौर में जब कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के पास आया था तो उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण लड़ाई जीती थी, लेकिन यह उनकी जिंदगी में आने वाले भूचाल के पहले की शांति थी। वक्त के साथ-साथ कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह पर भी अपना असर दिखाना शुरू कर चुका था। 1839 तक उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था। एक समय पर शेर-ए-पंजाब कहलाने वाले महाराजा की हालत इतनी खराब हो गई थी कि वह खुद से अपने बिस्तर से उठ पाने के काबिल नहीं बचे थे। अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों को करीब देख महाराजा रणजीत सिंह काफी दान पुण्य करने लगे थे। उन्होंने अपने पास रखी कई कीमती चीजों को मंदिरों और गुरुद्वारों को दान कर दिया था। उनकी दिल्ली ख्वाहिश थी कि उनके पास बचा कोहिनूर भी किसी टेंपल को दान में दे दिया जाए लेकिन उनके मंत्री इसके लिए नहीं माने जिस कारण कोहिनूर मंदिर को दान नहीं हो सका। इस ख्वाहिश के पूरा हुए बिना ही 27 जून 1839 को महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। कोहिनूर को मंदिर में दान करने की खबर को कई ब्रिटिश न्यूज पेपर्स ने डिटेल में छापा। इस खबर ने महारानी विक्टोरिया का भी ध्यान खींचा। जिसके बाद महारानी विक्टोरिया ने अपने अधिकारियों से कोहिनूर पर नजर बनाए रखने को कहा। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे खड़क सिंह सिख एंपायर के राजा बने, लेकिन उनके लिए इतने बड़े एंपायर को अकेले संभालना मुश्किल हो रहा था। उनके करीबी लोग ही उनके खिलाफ साजिश रच रहे थे। राजा बनने के कुछ ही महीनों बाद खड़क सिंह को जहर देकर मार दिया गया। सिख अंपायर की यूनिटी में दरार पड़ चुकी थी। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन चुके थे। करीब 4 सालों तक ऐसा ही चलता रहा। इस बीच महाराजा रणजीत सिंह के कई पुत्र राजा बने लेकिन उन सभी को मौत की नींद सुला दिया गया। अब सिख एंपायर की सत्ता को संभालने वाले केवल उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह ही बचे थे, जो केवल 5 साल के थे। इतनी छोटी उम्र के बावजूद सिख एंपायर को बिखरने से बचाने के लिए उन्हें राजा बनाया गया। हालांकि दलीप सिंह केवल नाम मात्र के राजा थे। असल में सिख साम्राज्य की बागडोर उनकी मां जिंद कौर के हाथों में थी अनुभवहीन राजा और बढ़ती साजिशों को देखते हुए। अंग्रेजो को सिख एंपायर हड़पने का अच्छा मौका हाथ लगा और उन्होंने 1845 में पंजाब पर अटैक कर दिया। सिखों के लिए अंग्रेजी सेना का सामना करना मुश्किल हो गया और कुछ ही दिनों के भीतर अंग्रेज य युद्ध जीत गए। इसके बाद अंग्रेजों ने सिख एंपायर से कश्मीर भी छीन लिया। इसके 4 साल बाद 1849 के शुरुआती महीने में ब्रिटिशर्स ने फिर से सिख एंपायर पर हमला कर दिया। कमजोर पड़ चुके सिख एंपायर की सेना जल्द ही पीछे हटने पर मजबूर हो गई और 29 मार्च 1849 को अंग्रेजों ने लाहौर किले पर अपना कब्जा जमा लिया। अंग्रेजों ने सिखों के सामने लाहौर ट्रीटी का प्रपोजल रखा। जिसे उन्हें मजबूरन एक्सेप्ट करना पड़ा। इस ट्रीटी के बाद ब्रिटिशर्स ने महाराजा दलीप सिंह को 50000 पाउंड की एनुअल पेंशन देने की घोषणा की। जिसकी कीमत आज करीब 55 करोड़ होती है। इसके बाद अंग्रेजों ने उनकी मां जिंद कौर को जेल में डालकर दलीप सिंह को महारानी विक्टोरिया के पास लंदन भेज दिया। इस तरह अंग्रेजों ने सिख एंपायर की बिखरी सत्ता के एक होने की आखिरी उम्मीद को भी हम हमेशा के लिए खत्म कर दिया।

Kohinoor (कोहिनूर) : एक अमूल्य रत्न | भारत से ब्रिटिश राज तक की कोहिनूर का सफर

ब्रिटिश ताज का गहना

सिख एंपायर को हड़पने के बाद गवर्नर जनरल लॉर्ड डल हाउजी कोहिनूर को लेने खुद लाहौर किले पर आए थे। यहां से कोहीनूर को हासिल करने के बाद उन्होंने इसे 6 अप्रैल 1850 को एक शिप से महारानी विक्टोरिया के पास ब्रिटेन भेज दिया। कोहिनूर को ब्रिटेन ले जाने वाली शिप को रास्ते में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। जब शिप बीच समुद्रों में था। उसी समय एक तेज तूफान के कारण जहाज एकदम डूबने के करीब पहुंच गया था। किसी तरह करीब 3 महीने बाद शिप 29 जून 1850 को ब्रिटेन पहुंचा। इसे इतना सीक्रेट ब्रिटेन भेजा गया था कि शिप पर सवार एक भी इंसान को इस पर कोहिनूर के होने की खबर तक नहीं थी। इसके बाद कोहिनूर को महारानी विक्टोरिया के पास पहुंचा दिया गया। बाद में जब इसकी खबर पब्लिक को लगी तो लोग इसे देखने के लिए उत्साहित होने लगे। लोगों की भारी डिमांड के बाद इसे 3 साल बाद पब्लिक को दिखाने के लिए लंदन के क्रिस्टल पैलेस में रखा गया। इसे देखने के लिए लंदन में भारी भीड़ उमड़ पड़ी कहा तो यहां तक गया कि लंदन में इससे पहले इतनी भीड़ कभी नहीं देखी गई थी। लेकिन जब वहां की जनता ने कोहिनूर को देखा तो उन्हें यह बिल्कुल भी पसंद नहीं आया, जैसे ही लोगों के रिएक्शन की खबर महारानी विक्टोरिया के पास पहुंची तो उन्हें काफी बुरा लगा। उन्होंने कोहिनूर को और ज्यादा अट्रैक्टिव बनाने के लिए इसे यूरोपियन स्टाइल में तराशने के आदेश दिए, वो चाहती थी कि इसे ऐसी शेप दी जाए कि इसे उनके ताज में आसानी से फिट किया जा सके। करीब 38 दिनों के बाद इसे तराश कर महारानी विक्टोरिया के ताज में लगा दिया गया। फिर से तराशने के बाद यह हीरा करीब 105 कैरेट के आसपास ही रह गया था। कोहिनूर को अपने ताज में लगवाने के बाद महारानी विक्टोरिया ने इसे अपनी अंतिम सांस तक पहना। उनकी मौत के बाद भी इसे किसी भी राजा के बजाय केवल महारानियां को ही पहनाया गया। जिस तरह का बिलीफ इसको लेकर क्रिएट हुआ था, उसको कहीं ना कहीं अंग्रेज भी मानते थे। बिलीफ के हिसाब से कोहिनूर को जो भी आदमी अपने पास रखता, उसका नुकसान ही होता। लेकिन कोहिनूर के कर्स का किसी औरत पर कोई भाव नहीं होता, इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी इसे ब्रिटेन की महारानियां ने इस्तेमाल किया और बाद में यह ब्रिटेन की धरोहर बनकर रह गया।

Kohinoor (कोहिनूर) : एक अमूल्य रत्न | भारत से ब्रिटिश राज तक की कोहिनूर का सफर

स्वामित्व पर बहस

लंबे समय से ब्रिटिश राजघराने में रानियों की शोभा बढ़ाते हुए यह कोहिनूर अब भारत की पहुंच से काफी दूर चला गया था। लेकिन फिर 1947 में जब भारत आजाद हुआ, तब भारत समेत कई अन्य देश भी कोहिनूर पर अपना क्लेम जताते हुए ब्रिटेन से इसकी डिमांड करने लगे। कोहिनूर अलग-अलग समय पर कई कंट्रीज के अलग-अलग राजाओं के पास रहा था, इसलिए ऐसे सभी देशों का मानना था कि कोहिनूर पर उनका हक है। कई कंट्रीज द्वारा क्लेम आने के बाद ब्रिटेन ने कोहिनूर को इनमें से किसी को भी देने से इंकार कर दिया। अब तक कोहिनूर पर इंडिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान अपना क्लेम कर चुके हैं। भारत सरकार इसे ब्रिटेन से इंडिया भेजने की कई बार रिक्वेस्ट कर चुकी है, लेकिन ब्रिटेन हर बार इसे लौटाने में आनाकानी करता रहा है। भारत ने आजादी के तुरंत बाद 1947 और 1953 में इस पर अपना क्लेम किया था, लेकिन ब्रिटिश गवर्नमेंट ने इसे नॉन नेगोशिएबल बताकर भारत को सौंपने से साफ इंकार कर दिया था। लेकिन फिर भी इंडियन गवर्नमेंट ने इसे पाने की आस नहीं छोड़ी और साल 2000 में भारत के कई एमपीज ने एक साइन डॉक्यूमेंट ब्रिटेन को भेजकर कोहिनूर को वापस भारत को लौटाने की मांग की, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी भारत को निराशा ही हाथ लगी। ब्रिटेन ने यह कहते हुए भारत की इस मांग को ठुकरा दिया कि कोहिनूर अलग-अलग समय में अलग-अलग देशों का हिस्सा रहा है। लेकिन अब यह करीब 150 सालों से ब्रिटिश हेरिटेज का हिस्सा है। इसलिए इसे भारत को नहीं लौटाया जा सकता है। इस घटना के 15 साल बाद 2015 में शशि थरूर को एक स्पीच के लिए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी बुलाया गया। उस बीच में उन्होंने 200 सालों में भारत से लूटी गई संपत्तियों के लिए ब्रिटिशर्स को खूब क्रिटिसाइज किया था। इस दौरान उन्होंने कोहिनूर और अन्य भारतीय धरोहरों का भी जिक्र किया, जो अब ब्रिटेन के पास है। इसके एक साल बाद 2016 में एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक पिटीशन फाइल की जिसमें भारत सरकार से ब्रिटेन द्वारा चुराए गए। कोहिनूर को वापस भारत लाने के बारे में कई सवाल पूछे गए थे। बाद में जब इस केस की हियरिंग हुई तो उसमें इंडियन गवर्नमेंट को सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार ने रिप्रेजेंट किया था। हियरिंग में उनका कहना था कि ब्रिटेन ने कोहीनूर को सिख एंपायर के राजा दलीप सिंह से एक ट्रीटी के तहत हासिल किया था। उनके इस तर्क के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने ब्रिटेन द्वारा कोहीनूर को चोरी करने की बात को खारिज कर दिया।

तो यह थी कोहिनूर की भारत से ब्रिटिश तक की यात्रा इस तरह की ओर भी इतिहासिक काहानियों के लिए Sansaneekhej के साथ जुड़े है और इसे शेयर करें।

इसे भी देखें - 

Kung Fu का इंडिया कनेक्शन, क्या है Shaolin Temple की कहानी?


By Anil Paal


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ