उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में 4000 हेक्टेयर में होने वाले कुंभ मेले (Kumbh Mela) 2025 में दुनिया भर से करोड़ों लोग आएंगे। जिसमें सिर्फ जल सुविधा की लागत 40 करोड़ है, जो 25 सेक्टर में 1249 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन में लगी है। 2013 में आयोजित कुंभ मेला ( Kumbh Mela) अब तक का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन माना गया था, जिसमें करीब 12 करोड़ से अधिक श्रद्धालु शामिल हुए थे। लेकिन 144 साल बाद होने वाले इस महाकुंभ की भव्यता उससे भी कहीं अधिक होने वाली है।

देश विदेश से 40 करोड़ से ज्यादा श्रद्धालुओं के आने की उम्मीद है और इसकी विशालता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका अनुमानित बजट 6382 करोड़ रुपए है। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो का कहना है कि कुंभ मेला इतना विशाल और भव्य होता है, कि अंतरिक्ष से भी देखा जा सकता है। लेकिन आपके मन में यह सवाल जरूर उठता होगा कि यह इतना विशाल और प्राचीन आयोजन आखिर शुरू कहां से हुआ और इसके पीछे का इतिहास क्या है? क्या इसका उल्लेख भारतीय वेदों पुराणों और धर्म ग्रंथों में मिलता है या फिर इसके पीछे कोई और गहरी और रहस्यमय कहानी छिपी है। सबसे रोचक बात यह है कि कुंभ के शाही स्नान का पहला अधिकार केवल नागा साधुओं को दिया जाता है, जबकि अन्य साधु संतों को उनके बाद स्नान करने का अवसर मिलता है। इस विशेष परंपरा के पीछे छिपा है, एक अद्भुत इतिहास। जो नागा साधुओं को इतना विशिष्ट और सम्माननीय बनाता है।
महाकुंभ का आयोजन प्रयागराज के त्रिवेणी संगम पर होता है। जहां गंगा यमुना और सरस्वती नदियों का संगम माना जाता है। लेकिन यहां केवल गंगा और यमुना ही दिखाई देती हैं तो आखिर कलयुग में सरस्वती नदी अदृश्य क्यों हो गई। क्या यह केवल एक धार्मिक मान्यता है या इसके पीछे कोई गहराई से छिपा हुआ वैज्ञानिक रहस्य है और प्रयागराज में स्थित अक्षयवट जिसे अमर वृक्ष माना जाता है, जो सृष्टि के विकास और प्रलय का साक्षी रहा है। इसके पीछे का इतिहास और महत्व भी जानेंगे।
2025 के महाकुंभ में भारत के 13 प्रमुख अखाड़े हिस्सा लेने वाले हैं। जानेंगे कि अखाड़ों का इतिहास क्या है? उनका विशेष महत्व क्या है और इस बार किन्नर अखाड़े को शामिल करने के पीछे की वजह क्या है? इन सभी सवालों का जवाब और महाकुंभ के अनसुने रहस्यों की परतें इस आर्टिकल में हम आपके सामने खोलेंगे। क्योंकि यह केवल एक मेला नहीं बल्कि है आस्था, इतिहास और संस्कृति का संगम है।
प्राचीन ग्रंथों में कुंभ मेले का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता फिर भी इसे भारत का सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है। यही नहीं 2017 में इसे यूनेस्को (UNESCO) ने मानवता की मूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में भी शामिल किया जो इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है।

कुम्भ मेला
कुम्भ संस्कृत का ऐसा शब्द है, जिसका अर्थ होता है 'कलश या घड़ा' ।लेकिन सवाल उठता है कि अगर कुंभ केवल 'पानी का घड़ा' है, तो यह इतना बड़ा और विश्व विख्यात त्यौहार कैसे बना। आइए इस आर्टिकल में हम आपको महाकुंभ के आरंभ से लेकर आज तक की पूरी यात्रा के बारे में बताएंगे। कुंभ मेले के इतिहास को समझने के लिए हमें दो प्रमुख पौराणिक कथाओं को जानना होगा, जो इस पर्व की गहराई और महत्व को उजागर करती हैं।
पौराणिक कथाएँ
महाकुंभ मेले की पहली कथा सर्पों और गरुड़ देव के बीच की है, जो ऋषि कश्यप और उनकी दो पत्नियों कद्रु और विनता से जुड़ी हुई है। कद्रु और विनता जो आपस में बहने थी और ऋषि कश्यप की पत्नियां भी थी। एक दिन कद्रु ने ऋषि कश्यप से वरदान मांगा कि उसे 1000 विषैले और शक्तिशाली पुत्र चाहिए। ऋषि कश्यप ने तथास्तु कहा और कद्रु को 1000 अंडे प्राप्त हुए। यह देखकर विनता ने भी वरदान मांगा कि भले ही उसके पुत्र कम हो लेकिन वे कद्रु के पुत्रों से अधिक शक्तिशाली हो। कश्यप ने उन्हें भी तथास्तु कहा और विनता को दो बड़े अंडे प्राप्त हुए। समय बीतने के साथ साथ कदरू के 1000 अंडे फूट गए और उनमें से सांप उत्पन्न हुए जिन्हें सर्पों की मां माना गया। दूसरी ओर विनता के अंडे नहीं फूट रहे थे और अधीरता में उन्होंने एक अंडा समय से पहले फोड़ दिया उसमें से एक अधूरा प्राणी निकला, जिसका शरीर कमर तक ही विकसित था। वह गुस्से में बोला मां आपने मेरे साथ यह अन्याय किया, लेकिन कृपया दूसरे अंडे के साथ ऐसा मत कीजिएगा। वह प्राणी उड़ गया और उसका नाम अरुण रखा गया। आगे चलकर वह सूर्यदेव का सारथी बना। एक दिन कद्रु और विनता ने सूर्यदेव के सफेद घोड़े को देखकर शर्त लगाई। विनता ने कहा कि यह घोड़ा पूरी तरह सफेद है, जबकि कद्रु ने कहा कि उसकी पूंछ काली है। यह शर्त प्रतिष्ठा पर आ गई और तय हुआ कि जो भी हार जाएगा। उसे दासी बनना पड़ेगा। कद्रु ने अपने नाग पुत्रों से कहा कि वे सूक्ष्म रूप धारण कर घोड़े की पूंछ से चिपक जाएं ताकि वह काली दिखाई दे। नागों ने ऐसा ही किया और कद्रु शर्त जीत गई। विनता को हार मानकर दासी बनना पड़ा। कुछ समय बाद विनता के दूसरे अंडे से एक शक्तिशाली प्राणी निकला, जिसका चेहरा गरुड़ पक्षी जैसा था और शरीर मनुष्य जैसा उसका नाम गरुड़ रखा गया। जब गरुड़ ने देखा कि उसकी मां विनता कद्रु और उनके 1000 सर्प पुत्रों की दासी बन चुकी है तो उसने अपनी मां को मुक्त कराने का संकल्प लिया। गरुड़ ने सर्पों से विनता को मुक्त करने का उपाय पूछा सर्पों ने कहा अगर तुम वैकुंठ से अमृत कलश लाकर हमें दे दो, तो हम तुम्हारी मां को मुक्त कर देंगे। गरुड़ ने यह शर्त मान ली। वैकुंठ धाम पहुंचकर गरुड़ ने अमृत कलश प्राप्त किया। देवताओं ने उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन गरुड़ अपनी अद्वितीय शक्ति के बल पर सफल रहे। विष्णु जी ने गरुड़ को रोका और उनसे पूछा तुम इस कलश को क्यों ले जा रहे हो, जबकि इसे खुद ग्रहण नहीं कर रहे। गरुड़ ने अपनी मां को मुक्त कराने की व्यथा सुनाई। विष्णु जी ने गरुड़ से कहा अगर मैं तुम्हें यह कलश ले जाने दूं तो तुम हमेशा के लिए मेरे वाहन बनोगे। गरुड़ ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। गरुड़ ने अमृत कलश सर्पों के पास पहुंचाया लेकिन विष्णु जी ने अपनी मायावी शक्ति से अमृत कलश को वहां से गायब कर दिया। गरुड़ ने अपनी मां को दास से मुक्त कराया। इस यात्रा के दौरान गरुड़ पर इंद्र ने कई बार हमला किया लेकिन वे असफल रहे। अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार प्रयागराज उज्जैन और नासिक पर गिरी यही कारण है कि इन चार पवित्र स्थलो पर कुंभ मेले का आयोजन होता है।
महाकुंभ से जुड़ी सबसे लोकप्रिय कथा है समुद्र मंथन की जिसे देवताओं और असुरों के बीच हुआ एक महान प्रयास माना जाता है। विष्णु पुराण के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि ने एक दिव्य माला बनाई और इसे देवराज इंद्र को भेंट किया, लेकिन इंद्र अपने अहंकार में डूबे हुए उस माला को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। ऐरावत ने वह माला जमीन पर गिरा दी और अपने पैरों से कुचल डाला महर्षि दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित होकर इंद्र को शाप दे दिया कि उनका वैभव नष्ट हो जाएगा और सभी देवता अपनी शक्तियां को खो देंगे। इस शाप के बाद देवता कमजोर हो गए और असुरों से पराजित हो गए। अपने वैभव और शक्तियों को पुनः प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा जी ने देवताओं को सुझाव दिया कि वे असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करें इस मंथन से अमृत निकलेगा जिसे ग्रहण कर वे अमर हो जाएंगे। यह बात जब देवताओं ने असुरों के राजा बली को बताई तो वे भी समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। वासुकी नाग की नेति बनाई गई और मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र मंथन सावन के महीने में ही किया गया। अमृत का कुंभ यानी कलश मिलते ही असुरों और देवों में युद्ध हो गया। वामन पुराण के अनुसार आचार्य बृहस्पति ने इंद्र के पुत्र जयंत को संकेत दिया कि वह अमृत कुंभ लेकर भाग जाए दैत्यों ने उसका पीछा 12 दिन तक किया, जो कि 12 वर्षों के बराबर था। युद्ध के समय अमृत कुंभ से त्रिलोक के 12 स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी। इनमें से आठ स्थान देवलोक में और चार स्थान पृथ्वी लोक पर स्थित हैं। हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक यही वह पवित्र स्थान है। जहां अमृत की बूंदों के कारण कुंभ मेले का आयोजन शुरू हुआ लेकिन कहानी का सबसे अहम हिस्सा अभी बाकी है, जिसे जानना आपके लिए बेहद जरूरी है। श्रीमद् भागवत पुराण के सागर छह प्रसंग में कुंभ विवरण के अनुसार सागर के 14 रत्न निकले थे। जिनमें सबसे पहले हलाहल या कालकूट विष निकला। इस विष की ज्वाला इतनी तीव्र थी कि सभी देवता और दानव इससे जलने लगे थे। तब भगवान शिव ने देवता दानव और समस्त सृष्टि की रक्षा के लिए से खुद पी लिया। विष की तीव्र जलन के कारण शिवजी का कंठ नीला पड़ गया। इसीलिए शिवजी का एक नाम नीलकंठ पड़ा। विष की ज्वाला को कम करने के लिए सभी देवताओं और दानवों ने शिवजी को शीतल जल चढ़ाया। इसके बाद उनके शरीर का ताप और जलन कम हुआ। यही कारण है कि सावन में शिवजी का जलाभिषेक किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जब शिवजी ने समुद्र मंथन से निकले हलाहल विष को ग्रहण किया तो उसकी कुछ बूंदे धरती पर गिर गई जिन घास की पत्तियों पर यह बूंदे गिरी उन्हें सांप ने चाट लिया। जिससे सांप की जीभ बीच से कट गई वहीं कुछ विष की बूंदों को बिछु और अन्य विषैले जीवों ने भी ग्रहण कर लिया। इसी कारण यह जीव जहरीले हो गए। इसके बाद कामधेनु, कल्प वृक्ष, कौस्तुभमणि, उच्चैश्रवा अश्व, ऐरावत गज, रंभा अप्सरा, सुरा, लक्ष्मी, चंद्रमा, शार्गंधनुष, भगवान धनवंतरी, पांच जन्य शंख और अमृत कुंभ निकला। जिसे विश्व मोहिनी बने भगवान विष्णु ने देवताओं को पिला दिया। इसकी बूंदे हरिद्वार की गंगा नदी, प्रयागराज के त्रिवेणी संगम, गंगा, यमुना और सरस्वती, उज्जैन की क्षिप्रा नदी और नासिक की गोदावरी नदी में गिरी। जहां अमृत की बूंदे गिरी वहां कुंभ मेले का आयोजन शुरू हुआ।
क्यों अदृश्य हो गई सरस्वती नदी
प्रयागराज में जहां महाकुंभ का आयोजन होता है। वहां गंगा और यमुना का संगम तो साफ देखा जा सकता है लेकिन सरस्वती नदी दिखाई नहीं देती, फिर भी इसे त्रिवेणी संगम कहा जाता है। अब सवाल यह उठता है कि सरस्वती नदी अदृश्य क्यों हो गई। इसके पीछे की वजह जानने के लिए हमें इतिहास और पौराणिक कथाओं में झांकना होगा। महाभारत के शल्य पर्व में सरस्वती नाम से सात नदियों का उल्लेख मिलता है। श्रीमद् भागवत पुराण में सरस्वती नदी के प्रवाह और उसके स्थानांतरण की एक रोचक कथा का वर्णन है। पुराणों के अनुसार प्राचीन काल में सरस्वती नदी स्वर्ण भूमि में बहा करती थी। कालांतर में इस भूमि का नाम स्वर्ण राष्ट्र हो गया और धीरे-धीरे यह सौराष्ट्र कहलाने लगा। उस समय सौराष्ट्र का क्षेत्र प्राचीन मारवाड़ तक फैला हुआ था और सरस्वती नदी इसी भूमि से प्रवाहित होती थी। यहां नित्य सरस्वती की पूजा और अर्चना होती थी, लेकिन समय के साथ इस प्रदेश के लोग यवनों के संपर्क में आ गए और उनके आचार विचार को अपनाने लगे इससे दुखी होकर सरस्वती ने ब्रह्मा जी से अनुमति मांगी और मारवाड़ एवं सौराष्ट्र छोड़कर प्रयाग में आकर वास करने लगी। कहा जाता है कि सरस्वती के यहां से चले जाने के बाद यह समृद्ध भूमि धीरे-धीरे मरुस्थल में बदल गई और यही मरुस्थल आज राजस्थान के नाम से जाना जाता है।
ऋग्वेद में सरस्वती नदी को अन्नवती और उदकवती के रूप में वर्णित किया गया है। इसे समृद्धि और जल की देवी के रूप में पूजा जाता था। ऋग्वेद में बताया गया है कि सरस्वती नदी यमुना के पूर्व और सतलुज के पश्चिम में प्रवाहित होती थी। महाभारत में इस नदी को कई नामों से जाना गया है, जैसे प्लक्षवती, वेदस्मृति, वेदवती। तांडे और जमिनी ब्राह्मण के अनुसार सरस्वती नदी मरुस्थल में सूख गई थी। महाभारत के विवरणों में इसका विनाशन नामक स्थान पर विलुप्त होने का वर्णन है। यही वह नदी थी, जिसके किनारे ब्रह्मावर्त और कुरुक्षेत्र जैसे प्राचीन स्थल बसे हुए थे। महाभारत में यह भी उल्लेख मिलता है कि बलराम ने द्वारका से मथुरा तक की यात्रा सरस्वती नदी के माध्यम से की थी। इसके अलावा यादवों के पार्थिव अवशेषों को इसी नदी में प्रवाहित किया गया था। इन विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि सरस्वती एक विशाल और महत्त्वपूर्ण नदी थी, जो ना केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखती थी, बल्कि यातायात और परिवहन के लिए भी उपयोगी थी। वैदिक काल में एक और नदी का उल्लेख मिलता है, जिसे दृषद्वती कहा जाता था। यह सरस्वती नदी की सहायक नदी थी और हरियाणा से होकर बहती थी। समय के साथ जब भीषण भूकंप आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे से पहाड़ ऊपर उठे तो नदियों का बहाव बदल गया। दृषद्वती नदी ने अपनी दिशा बदल ली और आज इसे यमुना नदी के नाम से जाना जाता है। यह सरस्वती नदी के साथ मिलकर बहने लगी और इसी कारण प्रयागराज में तीन नदियों के संगम को त्रिवेणी संगम कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास ने इसे तीर्थराज प्रयाग का नाम दिया, जो गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम का पवित्र स्थल है। यह स्थान ना केवल धार्मिक बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अद्वितीय है। प्राचीन ग्रंथों में कुंभ का अर्थ केवल एक साधारण कलश है, लेकिन यही साधारण शब्द कैसे बन गया दुनिया का सबसे बड़ा धर्म और संस्कृति का अमर प्रतीक। आइए जानते हैं, महाकुंभ के इतिहास से लेकर आज तक के अद्भुत सफर के बारे में।
महाकुंभ का इतिहास
दरअसल कुंभ मेले का उल्लेख वैदिक, ग्रंथों सूत्र, साहित्य, महाकाव्य, पुराण ग्रंथों, स्मृतियों या धर्मशास्त्रों में नहीं मिलता है। ऐतिहासिक किताबों में इसे माघ मेला या प्रयाग स्नान के नाम से जाना जाता है। कुंभ मेले में शाही स्नान का विशेष महत्व है। पवित्र नदियों में स्नान करना हिंदू मान्यताओं का अहम हिस्सा है और इसका सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद में नाहन पर्व नाम से मिलता है। इसका वर्णन बौद्ध धर्म के पाली ग्रंथों और महाभारत में भी हुआ है। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत के अनुसार सम्राट हर्षवर्धन ने 644 ईसवी में माघ मास के अर्ध कुंभ के अवसर पर प्रयागराज में आयोजित पंचवर्षीय धर्म महासभा में भाग लिया। इस सभा में उन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया। कई सांस्कृतिक विद्वानों का मानना है कि नौवीं सदी में लगभग 850 साल पहले आदि गुरु शंकराचार्य ने हिंदू संस्कृति को सुदृढ़ करने और लोक कल्याण की दृष्टि से कुंभ मेले की परंपरा को प्रारंभ किया। यह मेला भारती संस्कृति और धार्मिक आस्था का अद्भुत संगम है। 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी अमर कृति रामचरित मांस में प्रयागराज में लगने वाले वार्षिक मेले का उल्लेख किया है, जो कुंभ मेले की प्राचीनता और इसकी ऐतिहासिक महत्ता को दर्शाता है। वायु पुराण और नारदीय पुराण में सरस्वती नदी के तट पर स्थित कुंभ और श्री कुंभ तीर्थ का वर्णन मिलता है। वेदों की कई रचाओ में कुंभ, घट और कलश का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद और अथर्व वेद में भी घृत और मधु से भरे कुंभ का संदर्भ मिलता है, जो इसकी प्राचीनता और धार्मिक महत्व को दर्शाता है। इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार सन 1234 ईसवी में नागा सन्यासियों ने कुंभ के अवसर पर एक निर्णायक विजय प्राप्त की थी। 17वीं शताब्दी के फारसी धार्मिक ग्रंथ द बिस्तान ए मुजाहिब में भी 1640 ईसवी में कुंभ के दौरान हुए एक भीषण युद्ध का उल्लेख मिलता है। 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखे गए तबक़ा-ए-अकबरी में भी प्रयागराज संगम पर एक वार्षिक स्नान उत्सव का वर्णन किया गया है। इसमें लिखा गया है कि देश के सभी हिस्सों से हिंदुओं के विभिन्न वर्ग स्नान करने के लिए आते हैं। इतनी संख्या में कि जंगल और मैदान भी उन्हें रोक नहीं पाते। यह विवरण इस बात का प्रमाण है कि कुंभ मेला सदियों से आस्था इतिहास और भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में कुंभ का उल्लेख कई संदर्भों में मिलता है। कुंभ का अर्थ केवल पानी का घड़ा है ना कि एक त्यौहार। उदाहरण के लिए अथर्व वेद में-
"चतुरः कुंभांश्चतुर्धा ददामि
पूर्णः कुंभद्योकाल आहितस्तं"
जैसे वाक्यांश विशेष यज्ञों और ईश्वरीय समय की व्याख्या करते हैं। यह दिखाता है कि कुंभ का उपयोग वैदिक अनुष्ठानों और धार्मिक संदर्भों में किया जाता था। वायु पुराण के अनुसार सरस्वती नदी का तट पूर्वजों को समर्पित श्राद्ध संस्कार के लिए आदर्श स्थान माना गया है। वहीं नारदीय पुराण में इसे श कुंभ नामक स्थान बताया गया है, जहां स्नान करने से यज्ञ के समान पुण्य की प्राप्ति होती है। इन पौराणिक ग्रंथों में कुंभ का उल्लेख हमें इसकी प्राचीन धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता को समझने का अवसर देता है।
नासिक और उज्जैन में आयोजित होने वाले मेलों को 'सिंहस्थ' कहा जाता है। इसे सिंहस्थ इसलिए कहा जाता है, क्योंकि जब बृहस्पति सिंह राशि में होता है और सूर्य तथा चंद चंद्रमा की स्थिति मेला आरंभ होने की तिथि को विशेष महत्व प्रदान करती है। सिंह राशि का यह ज्योतिषीय संयोग नासिक और उज्जैन के कुंभ मेले को 'सिंहस्थ' नाम देता है।
अब सवाल उठता है कि कुंभ पर्व का स्वरूप एक त्यौहार के रूप में कैसे विकसित हुआ। 14वीं शताब्दी के बाद तीर्थ यात्राओं और मेलों का चलन बढ़ा यहां तक कि 19वीं सदी तक भी कहीं कुंभ मेलों का कोई जिक्र नहीं था। 1868 में ब्रिटिस अधिकारियों ने प्रयाग के माघ मेले कि रिर्पोट को ब्रिटिस सरकार को कुंभ माघ मेला के नाम से पेश किया। तभी से इस मेले को हरिद्वार, नासिक, उज्जैन में भी कुंभ नाम से प्रसिद्धि मिलने लगी। तो आइए इसे विस्तार से समझते हैं।
कुंभ महोत्सव का आयोजन ज्योतिषीय गणनाओं और विशेष खगोलीय स्थितियों पर आधारित होता है। जब बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मेष राशि में होते है, तब हरिद्वार में कुंभ महोत्सव आयोजित किया जाता है। प्रयागराज में कुंभ का आयोजन तब होता है, जब बृहस्पति वृषभ राशि में और सूर्य तथा चंद्रमा मकर राशि में होते हैं। यह स्थिति आमतौर पर अमावस्या के दिन बनती है। नासिक में गोदावरी नदी के तट पर कुंभ महोत्सव तब होता है, जब सूर्य और बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करते हैं। उज्जैन में कुंभ तब मनाया जाता है, जब बृहस्पति सिंह राशि में और सूर्य मेष राशि में होता है। महाकुंभ का आयोजन हर 12 साल में होता है। वेदों में बताए गए खगोल विज्ञान के अनुसार ब्रह्मांडी ऊर्जा का एक चक्र हर 12 साल में विशेष रूप से सक्रिय होता है। बृहस्पति और सूर्य की इन विशिष्ट खगोलीय स्थितियों के दौरान यह ऊर्जा पृथ्वी के कुछ खास स्थानों पर केंद्रित होती है।
यही कारण है कि कुंभ महोत्सव धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से इतना महत्त्वपूर्ण है। कुंभ मेला दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजनों में से एक है। इसकी भव्यता और विशालता ऐसी है कि इसे अंतरिक्ष से भी देखा जा सकता है। साल 2019 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो ने अपने कार्टोसैट दो उपग्रह के जरिए कुंभ मेले की तस्वीरें खींची थी। इन अद्भुत तस्वीरों में त्रिवेणी संगम की पवित्रता और नया यमुना पुल की सुंदरता साफ-साफ दिखाई दे रही थी।
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कुंभ मेला 2019 की सैटेलाइट तस्वीर |
यह नजारा ना केवल आस्था का प्रतीक है बल्कि यह भारत की संस्कृति और धार्मिक एकता की एक झलक भी दिखाता है। महाकुंभ में स्नान का क्रम बहुत पवित्र और अनुशासित होता है। सबसे पहले नागा साधु स्नान करते हैं फिर संत समाज और उसके बाद गृहस्थ लोग संगम में स्नान करते हैं। नागा साधु भारतीय आध्यात्मिकता और संस्कृति का एक रहस्यमय और रोचक पहलू है। उनके बारे में जानना हमारी प्राचीन परंपराओं और अध्यात्म को समझने के लिए बेहद जरूरी है। भस्म से रमा नग्न शरीर लंबी जटाए हाथ में कमंडल लिए नागा साधु जिनकी उपस्थिति अपने आप में एक रहस्य है। यह साधु अपना और अपने परिवार का पिंड दान स्वयं करते हैं, जिसे बिजवान कहा जाता है। आम दिनों में यह कहां रहते हैं? क्या खाते हैं? यह कोई नहीं जानता। परंतु कुंभ के शाही स्नान में यह मोक्ष प्राप्त के लिए डुबकी लगाते हैं, जो कि उनका जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।
नागा साधु
सदियों से भारतीय संस्कृति और धर्म पर संकट के बादल मंडराते आए हैं। 14वीं से 16वीं शताब्दी का समय जब मुगल आक्रमणकारी भारत की संस्कृति और धर्म पर वार कर रहे थे धर्म खतरे में था। उस समय नागा साधुओं ने धर्म और संस्कृति की रक्षा में अहम भूमिका निभाई। यह साधु केवल शास्त्र ही नहीं शस्त्र विद्या में भी निपुण थे और धर्म की रक्षा के लिए अपना जीवन तक न्योछावर करने को तैयार रहते थे। 18वीं शताब्दी में अहमद शाह अब्दाली जिसे अहमद शाह दुर्रानी के नाम से भी जाना जाता है। उसने भारत पर कई बार आक्रमण किया। 1748 में नादिर शाह की मृत्यु के बाद अफगानिस्तान का शासक बनने के साथ ही अब्दाली ने भारत को बार-बार लूटा, लेकिन उसका सबसे बड़ा और क्रूर आक्रमण 1757 में हुआ। जब उसने दिल्ली पर कब्जा कर एक महीने तक अराजकता और लूटपाट मचाई। इस आक्रमण का असर केवल दिल्ली तक सीमित नहीं रहा मथुरा, वृंदावन और गोकुल जैसे पवित्र स्थलों को भी अब्दाली की क्रूरता का सामना करना पड़ा। उस समय नागा साधुओं ने ना केवल इन स्थलों की रक्षा की बल्कि धर्म और संस्कृति की जड़ों को भी सुदृढ़ बनाए रखा। कई बार विदेशी आक्रमण की स्थिति में स्थानीय राजा महाराजा नागा साधुओं से मदद लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का उल्लेख मिलता है। जिनमें 40000 से ज्यादा नागा योद्धाओं ने अपनी वीरता का परिचय दिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा और वृंदावन पर आक्रमण के बाद जब गोकुल को लूटने की कोशिश की गई। तब नागा साधुओं ने अपनी अदम्य शक्ति और साहस दिखाते हुए अब्दाली की सेना से युद्ध किया और गोकुल की रक्षा की इस सहयोग को सम्मान देने के लिए हिंदू शासकों और नागा साधुओं के बीच एक समझौता हुआ। धर्म और राष्ट्र की रक्षा की जिम्मेदारी नागा साधुओं को सौंपी गई। इस समझौते के तहत नागा साधुओं को राजसी सम्मान देने के लिए शाही स्नान की परंपरा शुरू की गई। तब से कुंभ के पवित्र स्नान का पहला अधिकार हमेशा नागा साधुओं को दिया गया है। हालांकि हर परंपरा की तरह यह परंपरा भी विवादों से अछूती नहीं रही। 1310 में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णव अखाड़े के बीच एक खूनी संघर्ष हुआ। वहीं 1760 में शैव और वैष्णव साधुओं के बीच शाही स्नान को लेकर भयंकर लड़ाई छिड़ गई। इन विवादों को रोकने के लिए अंग्रेजों ने अखाड़ों के स्नान का क्रम तय किया। यह अनुशासन आज भी कुंभ मेले की परंपरा का हिस्सा है, इसीलिए महाकुंभ में सबसे पहले नागा साधु शही स्नान करते हैं। नागा साधुओं के बाद दूसरे क्रम पर संत समाज संगम में स्नान करता है और संत समाज के स्नान के बाद ही गृहस्थ लोग पवित्र संगम में स्नान के लिए उतरते हैं। यह नागा साधु एक विशेष सैन्य पंथ का हिस्सा है। उनके पास त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम जैसी वस्तुएं होती हैं, जो उनके सैन्य दर्जे और परंपरा को दर्शाती हैं। नागा साधु अपने आप में एक चलती फिरती सेना की तरह होते हैं जो अपने ईष्ट देव भगवान शिव के प्रति अगाध भक्ति और समर्पण रखते हैं। नागा साधुओं की दीक्षा प्रक्रिया केवल कुंभ के दौरान प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में होती है। दीक्षा के स्थान के आधार पर इन्हे अलग-अलग नाम दिए गए हैं। प्रयागराज के नागा, उज्जैन के खूनी नागा, हरिद्वार के बर्फानी नागा और नासिक के खिचड़िया नागा। ऐसा माना जाता है कि नागा जनजाति की शुरुआत भारत के उत्तर पूर्वी राज्य नागालैंड से हुई। जहां नंगा पर्वत श्रेणियां फैली हुई हैं नागा शब्द का अर्थ है पहाड़ और कछारी भाषा में इसे युवा बहादुर लड़ाकू व्यक्ति कहा गया है।
महाकुंभ के अखाड़ों के इतिहास
अब बात करते हैं महाकुंभ के अखाड़ों के इतिहास और शंकराचार्य के योगदान की। कुछ विद्वानों का मानना है कि नागा सन्यासियों के अखाड़े आदि शंकराचार्य के पहले भी मौजूद थे। हालांकि उस समय इन्हें अखाड़ा नहीं कहा जाता था। इन्हें बेड़ा या साधुओं का जत्था कहा जाता था। अखाड़ा शब्द का चलन मुगल काल से शुरू हुआ और तभी से इसे एक संगठित समुदाय के रूप में पहचान मिली। अखाड़ों को समझने के लिए हमें आदि शंकराचार्य के योगदान को जानना होगा क्योंकि उन्होंने ही अखाड़ों की स्थापना का विचार प्रस्तुत किया था। सातवीं शताब्दी में विदेशी आक्रमणकारी भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर यहां आते थे। कुछ धन संपत्ति लूटकर चले जाते, तो कुछ भारत की आध्यात्मिक आभा से प्रभावित होकर यहीं बस जाते। लेकिन इस दौरान भारत की शांति व्यवस्था और सनातन धर्म कमजोर पड़ने लगा। धर्मशास्त्रों और ईश्वर पर तर्क होने लगे और शास्त्रों को चुनौती दी जाने लगी। ऐसे समय में आदिगुरु शंकराचार्य ने धर्म को एक नई दिशा देने और भारत को एकता के सूत्र में बांधने का बीड़ा उठाया। उन्होंने चार दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की पूर्व में गोवर्धन पीठ, उत्तर में शारदा पीठ, पश्चिम में द्वारिका पीठ और दक्षिण में ज्योतिर मठ पीठ। इन पीठों ने भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धारा को जीवित रखने का कार्य किया। शंकराचार्य ने समझाया कि भौगोलिक चाहे कितनी भी हो सनातन धर्म की नीव एक ही है। बहुत कम उम्र में ही उन्होंने वेद उपनिषद और शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था। उनकी दृष्टि में सनातन धर्म केवल पूजा पाठ तक सीमित नहीं था बल्कि यह जीवन जीने का एक मार्ग था। उन्होंने देखा कि धर्म का मूल उद्देश्य आत्मा का परमात्मा से मिलन है, जो समय के साथ खोता जा रहा था। शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत का संदेश दिया-
'ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या,
जीवो ब्रह्मैव नापरः।'
इसका अर्थ है केवल ब्रह्म सत्य है यह संसार माया है और जीवात्मा स्वयं ब्रह्म है। उनका उद्देश्य साधुओं के विभिन्न संघों को एकजुट करना, सनातन धर्म को मानने वालों को संगठित करना और एक साझा लक्ष्य के लिए प्रेरित करना था। इसी सोच के परिणाम स्वरूप अखाड़ों की परंपरा 14वीं से 16वीं सदी के बीच शुरू हुई।
अब बात करते हैं अखाड़ों की। अखाड़ा का अर्थ है एक ऐसा समुदाय जो धार्मिक आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यों में सक्रिय होता है। यह अखाड़े सनातन धर्म के संतों और सन्यासियों के संगठन हैं। जिनका उद्देश्य वेद उपनिषद और धार्मिक अनुशासन का पालन करते हुए धर्म और संस्कृति का संवर्धन करना है। अखाड़ों का संचालन एक पांच सदस्य समिति करती है। जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश और शक्ति के प्रतीक शामिल होते हैं। यह परंपरा धर्म और संस्कृति को संगठित रूप में बनाए रखने का माध्यम है। महाकुंभ मेला हिंदू धर्म में अत्यधिक महत्व रखता है। जिसमें भारत के अलग-अलग अखाड़े शक्ति प्रदर्शन धार्मिक चिंतन और भक्ति का अनुष्ठान करते हैं। महाकुंभ में 13 प्रमुख अखाड़े होते हैं, जिन्हें मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में बांटा गया है।
1. शैव अखाड़ा
भगवान शिव की उपासना करने वाले सन्यासियों का समुदाय है। इनमें शामिल है जुना अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा,अटल अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, आवाहन अखाड़ा और अग्नि अखाड़ा।
2. वैष्णव अखाड़ा
भगवान विष्णु और उनके अवतारों की आराधना करते हैं। इनमें तीन अखाड़े आते हैं। निर्वाणी अखाड़ा, दिगंबर अखाड़ा और निर्मोही अखाड़ा।
3. उदासीन अखाड़ा
जो निर्गुण भक्ति और वेदांत के अध्ययन में लीन रहते हैं। इसमें शामिल है उदासीन अखाड़ा और निर्मल अखाड़ा। यह अखाड़े भारतीय आध्यात्मिकता और संत परंपरा के गहरे प्रतीक हैं और महाकुंभ को एक विशेष आध्यात्मिक अनुभव बनाते हैं।
आज के समय में भारत का सबसे बड़ा अखाड़ा जूना अखाड़ा है, जिसके बाद निरंजनी और महानिर्वाणी अखाड़े का स्थान आता है। इन अखाड़ों की उपस्थिति कुंभ मेले में विशेष रूप से आकर्षण का केंद्र होती है। हर साल यह अखाड़े अपनी भव्य पेशवाई में भाग लेते हैं। इस जुलूस में आचार्य महामंडलेश्वर और महंत रथों पर सवार होते हैं, जबकि नागा साधु अपने घोड़ों पर चलते हुए शक्ति और परंपरा का प्रदर्शन करते हैं। पेशवाई का अर्थ होता है आश्रम से मेला क्षेत्र में अखाड़ों का प्रवेश और यह कुंभ मेले के शुभारंभ का प्रतीक होता है। हालांकि इस बार 2025 कुंभ मेले में दोनों अनुष्ठान यथावत रहेंगे लेकिन इनके नाम बदल दिए गए हैं। अब शाही स्नान को राजसी स्नान या कुंभ अमृत स्नान के नाम से जाना जाएगा और पेशवाई का नया नाम कुंभ मेला छावनी प्रवेश यात्रा रखा गया है। इन परिवर्तनों के साथ कुंभ मेले की परंपराएं अपनी आधुनिक पहचान और गरिमा को बनाए रखते हुए जारी रहेंगी।
2015 में पहली बार किन्नर समुदाय ने कुंभ में हिस्सा लिया और अब 2025 में लक्ष्मी नारायण अखाड़े के नेतृत्व में किन्नर समुदाय महाकुंभ का हिस्सा बनेगा। यह कदम महाकुंभ के आह्वान का प्रतीक है। समानता का संदेश जहां कोई भेदभाव नहीं होता। इस पहल का उद्देश्य उन किन्नरों को धर्म और समाज से जोड़ना है, जिन्हें अक्सर तिरस्कार भरी नजरों से देखा जाता है। महाकुंभ 2025 में अर्धनारीश्वर धाम के नाम से एक शिविर लगाया जाएगा, जो किन्नर समुदाय के लिए धार्मिक आस्था और सम्मान का केंद्र बनेगा। कुंभ के दौरान अखाड़ों की प्रमुख गतिविधि शाही स्नान होती है। ऐसा माना जाता है कि इस पवित्र स्नान से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
महाकुम्भ 2025
महाकुंभ 2025 एक ऐसा धार्मिक और आध्यात्मिक अनुभव होगा जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है इस आयोजन की शुरुआत 13 जनवरी को पौश पूर्ण से होगी। इसके बाद मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या, बसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि जैसे पवित्र पर्व 45 दिनों के अंतराल में मनाए जाएंगे। इस महायज्ञ में करीब 40 करोड़ श्रद्धालुओं के शामिल होने की संभावना है। गंगा की पवित्र धाराओं के बीच गूंजते जयकारों की आवाजें सोने चांदी से सजी चमचमाती पालकिया और आकाश में उठती धुएं की लकीरें ऐसा अद्भुत दृश्य केवल महाकुंभ में देखने को मिलता है। सुबह के 4:00 बजे से ही गंगा की लहरें और ठंडी हवाएं मानो खुद देवताओं के स्वागत का इंतजार कर रही हो। शरीर पर भभूत हाथों में पारंपरिक अस्त्र शस्त्र और आंखों में अनंत भक्ति का तेज लिए सबसे पहले नागा साधु घाट की ओर बढ़ते हैं और शाही स्नान का शुभारंभ करते हैं। उनके बाद ही अन्य श्रद्धालु को स्नान की अनुमति मिलती है।
अक्षयवट वृक्ष
अब बात करते हैं उस अक्षय वट की जिसे अमर वृक्ष भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रयाग में स्नान के बाद जब तक अक्षय वट का पूजन एवं दर्शन नहीं किया जाता, तब तक पूर्ण लाभ नहीं मिलता। यह दिव्य वृक्ष प्रयागराज के मुगल सम्राट अकबर के किले के अंदर पातालपुरी मंदिर में स्थित है और इसे सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है। अक्षयवट का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। यह सृष्टि के विकास और प्रलय का साक्षी रहा है। इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इसका कभी नाश नहीं होता। मान्यता है कि माता सीता ने इसे आशीर्वाद दिया था कि प्रलय के समय जब सब कुछ नष्ट हो जाएगा तब भी यह वृक्ष हरा भरा रहेगा। कहा जाता है कि बाल रूप में श्री कृष्ण इसी वट वृक्ष पर विराजमान हुए थे। बाल मुकुंद रूप में श्री हरि इस पवित्र वृक्ष के पत्ते पर शयन करते हैं। इसका उल्लेख कालिदास के रघुवंश और चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में भी मिलता है। शालिग्राम श्रीवास्तव की पुस्तक प्रयाग प्रदीप में भी अक्षयवट का जिक्र है।ह्वेनसांग ने अपने विवरण में लिखा कि प्रयागराज में एक देव मंदिर स्थित है, जिसके आंगन में एक विशाल वटवृक्ष है, जिसकी शाखाएं और पत्तियां दूर दूर तक फ फैली हुई है। पौराणिक और ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए श्रद्धालु इस वट की ऊंची डालो से कूद जाया करते थे। लेकिन मुगल शासकों ने इस परंपरा को खत्म कर दिया और आम तीर्थ यात्रियों के लिए भी अक्षय वट के दर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया। ऐसा भी कहा जाता है कि यहां ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित शूल टंकेश्वर शिवलिंग भी है। जिस पर अकबर की पत्नी जोधाबाई जलाभिषेक करती थी। यह भी मान्यता है कि अक्षयवट के नीचे से अदृश्य सरस्वती नदी बहती है। संगम स्नान के बाद अक्षयवट का दर्शन और पूजन करने से वंश वृद्धि से लेकर धन धान्य की संपूर्णता तक की मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
महाकुंभ के गौरवशाली इतिहास में एक विशेष घटना 1954 में घटित हुई जब भारत के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने प्रयागराज में कुंभ मेला के दौरान कल्पवास किया। उनके लिए विशेष रूप से किले की छत पर एक कैंप स्थापित किया गया। जिसे आज प्रेसिडेंट व्यू के नाम से जाना जाता है, तो आपके मन में सवाल जरूर उठता होगा कि कल्पवास क्या होता है और कुंभ मेले में इसका इतना महत्व क्यों है आइए जानते हैं इसके बारे में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तो प्रयागराज में शुरू होने वाले कल्पवास में एक कल्प का पुण्य मिलता है। शास्त्रों के अनुसार कल्प का अर्थ है ब्रह्मा जी का एक दिन। रामचरित मानस और महाभारत जैसे कई ग्रंथों में कल्पवास का महत्व वर्णित है। कल्पवास एक कठिन साधना है। इसके दौरान व्यक्ति को अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना पड़ता है। एक माह तक चलने वाले कल्पवास के दौरान कल्प वासी को जमीन पर सोना होता है। उन्हें एक समय का आहार या निराहार रहना पड़ता है। साथ ही दिन में तीन बार गंगा स्नान करना अनिवार्य होता है। कल्प वास शुरू करने के बाद इसे 12 वर्षों तक जारी रखना होता है। इस दौरान साफ सुथरे पीले और सफेद कपड़े पहनने का विशेष महत्व है। कल्पवास के पहले दिन कल्पवासी अपने टेंट के पास जौ के बीज बोते हैं और एक तुलसी का पौधा लगाते हैं। महीने भर में जौ के छोटे-छोटे पौधे उगाते हैं, जिन्हें जाते समय गंगा जी में प्रवाहित किया जाता है। साथ ही तुलसी के पौधे को रोज गंगा जल से से सींचा जाता है। ऐसा माना जाता है कि कल्पवास करने वाला व्यक्ति अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है। साथ ही मोक्ष का संकल्प लेकर कल्पवास करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। महाकुंभ 2025 आस्था परंपरा और भक्ति का यह महासंगम एक बार फिर इतिहास रचने वाला है।
अब जानते हैं कुंभ कितने प्रकार के होते हैं और इसका आयोजन किस आधार पर किया जाता है।
1. महाकुंभ मेला
समस्त कुंभ मेलों में सबसे श्रेष्ठ है महाकुंभ। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह मेला दो शताब्दियों में केवल एक बार आयोजित होता है। महाकुंभ का आयोजन 144 वर्षों बाद प्रयागराज में किया जाता है। जब प्रयाग की पावन धरती पर 12 पूर्ण कुंभ पूरे हो जाते हैं, तब त्रिवेणी के तट पर महाकुंभ का भव्य आयोजन होता है।
2. पूर्ण कुंभ मेला
पूर्ण कुंभ मेला हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है। यह भारत के चार पवित्र स्थानों प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। हर 12 साल के अंतराल पर इन चारों स्थलों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। जहां श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान करते हैं।
3. अर्ध कुंभ मेला
कुंभ मेले के विपरीत अर्ध कुंभ हर 6 साल के बाद मनाया जाता है। इसका आयोजन केवल दो स्थानों प्रयागराज और हरिद्वार में होता है। अर्ध का अर्थ होता है आधा, इसलिए इसे कुंभ मेले के बीच के आयोजन के रूप में देखा जाता है।
4. कुंभ मेला
कुंभ मेले का आयोजन भारत के चार प्रमुख स्थलों पर होता है हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज। इस दौरान श्रद्धालु गंगा, गोदावरी और क्षिप्रा नदियों में आस्था की डुबकी लगाते हैं। प्रयागराज में संगम में स्नान का विशेष महत्व होता है।
तो यह था कुंभ के प्रकारों और उनके आयोजन का संपूर्ण विवरण।आपके मन में यह सवाल जरूर उठता होगा कि कुंभ पर अरबों रुपए खर्च करने पर आखिर सरकार को क्या मिलता है आइए जानते हैं कि महाकुंभ 1882 से लेकर 2025 तक सरकार ने कितना बजट खर्च किया और इससे सरकार को कितनी आय हुई। साल 1882 के महाकुंभ में 20,228 रुपए खर्च किए गए थे। इसकी तुलना में मेले से कुल 49,840 रुपये की आमदनी हुई थी। जिसे राजकोष में जमा कराया गया। इस तरह सरकार को कुंभ से 29,612 रुपये का लाभ हुआ। उस समय मौनी अमावस्या पर करीब 8 लाख श्रद्धालुओं ने स्नान किया था। जबकि भारत की कुल आबादी 22 करोड़ 50 लाख थी। 1894 के कुंभ में भारत की जनसंख्या बढ़कर 23 करोड़ हो गई और इस आयोजन में करीब 10 लाख श्रद्धालुओं ने हिस्सा लिया। इस पर 69,427 खर्च हुए थे, जो आज के हिसाब से लगभग 10.5 करोड़ रुपए होते हैं। 1906 में कुंभ मेले में 25 लाख लोगों ने भाग लिया। इस आयोजन पर करीब ₹90 हजार खर्च हुए, जो आज के मूल्य के अनुसार लगभग 13 करोड़ रुपए होते हैं। 1918 के महाकुंभ में संगम में डुबकी लगाने वाले श्रद्धालुओं की संख्या और बढ़कर 30 लाख हो गई। इस बार श्रद्धालुओं के लिए 137000 का बजट निर्धारित किया गया था, जो आज के हिसाब से लगभग 16 करोड़ 44 लाख रुपए होते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने महाकुंभ 2025 के आयोजन के लिए 5435 करोड़ 68 लाख रुपए का विशाल बजट निर्धारित किया है। यह 2019 में हुए कुंभ मेले के 4200 करोड़ रुपए के बजट से कहीं अधिक है। उत्तर प्रदेश सरकार के आर्थिक सलाहकार केवी राजू का दावा है कि महाकुंभ 2025 में करीब 45 करोड़ श्रद्धालुओं की अपेक्षित भीड़ के साथ इस आयोजन से कम से कम 2 लाख करोड़ रुपए की रेवेन्यू जनरेट हो सकती है। महाकुंभ मेले में इस बार बड़ी संख्या में विदेशी नागरिक भी हिस्सा ले रहे हैं। राज्य सरकार के पर्यटन विभाग ने इन मेहमानों के ठहरने और उनकी सुविधा का विशेष ध्यान रखा है। इसके लिए कई टूरिज्म पैकेज तैयार किए गए हैं। इन से यह साफ पता चलता है कि समय के साथ ना केवल श्रद्धालुओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, बल्कि आयोजन का बजट आमदनी और व्यवस्थाओं का स्तर भी लगातार बढ़ता गया है। 13 जनवरी से शुरू होने वाला महाकुंभ 26 फरवरी तक यानी 45 दिनों के लिए रहेगा। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह विश्व स्तर का एक विशाल आयोजन है। अगर आप आपको हिंदुस्तान में रहने का सौभाग्य मिला है तो आपको इस महाकुंभ में एक बार जरूर जाना चाहिए। यहां आपको एक अलग ही दिव्य ऊर्जा महसूस होगी इतनी ठंड और भीड़ में भी त्रिवेणी संगम पर शाही स्नान करने के लिए लोग संकोच नहीं करते। यहां की पॉजिटिव एनर्जी विदेश से आए लोगों ने भी महसूस की है इसीलिए वे बार-बार महाकुंभ में आना चाहते हैं।
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By Anil Paal
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