मौजूदा समय में कई मोर्चों पर जंग लड़ रहा मिडिल ईस्ट (Middle East) आज जिस मुहाने पर खड़ा है। वहां से एक बड़े युद्ध की आहट साफ सुनाई दे रही है। गाजा में हमास से लेकर लेबनॉन में हिजबुल्लाह तक, यमन में हुती से लेकर ईरान, इजराइल और सीरिया तक। हर सिरे पर जंग लड़ने के लिए एक मोर्चा तैयार है। मिडिल ईस्ट (Middle East) का वर्तमान जितना उथल-पुथल है, क्या उसका अतीत भी कभी इतना ही उथल-पुथल था? नहीं। यह सब शुरू हुआ था ब्रिटन और फ्रांस के बीच हुई एक सीक्रेट मीटिंग से। इस मीटिंग में एक एग्रीमेंट हुआ, जिसकी भनक तक किसी को नहीं लगी लेकिन ठीक एक साल बाद उस एग्रीमेंट की एक कॉपी रूस की सरकार के हाथ लग गई। उन्होंने इस कॉपी को अखबार में छपवा दिया फिर जो खुलासा हुआ, उसने पूरी दुनिया को चौका दिया। दरअसल इस एग्रीमेंट के तहत मिडिल ईस्ट (Middle East) का बंटवारा होने वाला था। अगर आपको लग रहा है कि हम 1948 में हुए फिलिस्तीन के बंटवारे की बात कर रहे हैं तो आपको बता दें यह दूसरा बंटवारा है। सऊदी अरब, इराक, ईरान, जॉर्डन इन तमाम देशों के बीच आज जो तनातनी है। उसकी शुरुआत इसी बंटवारे से हुई थी। फ्रांस और ब्रिटेन के बीच मीटिंग में क्या हुआ था? कैसे हुआ अरब देशों का बंटवारा? यह सब जानेंगे आज के लेख में।

अरब देशों का बंटवारा कैसे हुआ?
कहानी की शुरुआत होती है 20वीं सदी की शुरुआत से।
छह सदियों तक मिडिल ईस्ट (Middle East) पर हुकूमत करने वाले तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य का पानी
धीरे-धीरे उतर रहा था। उनकी जगह ले रहा था ब्रिटिश साम्राज्य। मिडिल ईस्ट (Middle East) के जिन
इलाकों पर ऑटोमन साम्राज्य की पकड़ थी, वो एक-एक करके ब्रिटेन और फ्रांस के अधीन
हो गए। कभी उत्तरी अफ्रीका तक फैला ऑटोमन साम्राज्य अब अपने आखिरी कुछ सालों में
दमिश्क, अलेप्पो, रक्का, बसरा और बगदाद तक ही सिमट कर रह गया था।

क्या हुआ था सीक्रेट मीटिंग में?
1914 में शुरुआत हुई थी प्रथम विश्व युद्ध की, जिसमें एक तरफ अलाइड पावर्स थे यानी कि फ्रांस, ब्रिटेन, रशिया, इटली यूएसए और जापान। दूसरे तरफ का नाम था सेंट्रल पावर्स यानी कि जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी और ऑटोमन साम्राज्य। मिडिल ईस्ट (Middle East) में ऑटोमन बड़ी ताकत थे। लिहाजा यहां ब्रिटेन और फ्रांस का उनसे सीधा मुकाबला था। ऑटोमन साम्राज्य से निपटने के लिए फ्रांस और ब्रिटेन को कुछ ना कुछ करना था तो उन्होंने एक मीटिंग कर ली । इस गुप्त मीटिंग में शामिल हुए ब्रिटेन के डिप्लोमेट मार्क साइक्स और फ्रांस के डिप्लोमेट जॉर्ज पिकॉडल। ईस्ट के नक्शे पर शतरंज की विसात बिछने लगी। दोनों डिप्लोमेट्स ने अपनी पेंसिल की लकीर से मिडिल ईस्ट (Middle East) के नक्शे को कई हिस्सों में बांट दिया। यह लकीर कई धर्मों और समुदायों के बीच से होकर गुजरने वाली थी। जिनके शायद नाम भी उन्हें ठीक से पता नहीं थे। इसके बावजूद फ्रांस और ब्रिटेन ने एक एग्रीमेंट कर मिडिल ईस्ट (Middle East) का बंदर बांट कर लिया, तय हुआ कि युद्ध के बाद हर साथी सदस्य को मिडिल ईस्ट (Middle East) में हिस्सा मिलेगा। इस सीक्रेट एग्रीमेंट का नाम दिया गया साइक्स पिकॉट एग्रीमेंट। 16 मई 1916 को इस एग्रीमेंट को आखिरी रूप दिया गया। जिस पर रूस ने अभी अपनी मोहर लगा दी। इस एग्रीमेंट के तहत ऑटोमन साम्राज्य के अंडर आने वाले इलाके पांच हिस्सों में बांटे जाने थे।
- पहला हिस्सा बगदाद से लेकर कुवैत और गल्फ के तट तक था। जिस पर ब्रिटेन का कंट्रोल था।
- दूसरा हिस्सा उत्तरी इराक जॉर्डन से होते हुए सिनाई तक था। इस पर भी ब्रिटिशर्स का कंट्रोल था और वह अपना दावा ठोक भी रहे थे।
- तीसरा हिस्सा दक्षिणी लेबनॉन से लेकर अनातोलिया तक था, इन पर फ्रांस का कंट्रोल था।
- चौथे हिस्से में सीरिया का रेगिस्तान शामिल था और यह हिस्सा भी फ्रांस को मिलने वाला था।
- पांचवां हिस्सा यरूशलम था, जिसका विभाजन नहीं हो सका और इसे आखिरकार इंटर नेशनल जोन माना गया।
इस एग्रीमेंट के तहत रूस को इस्तांबुल, बॉस्फोरस और रूसी सीमा से सटे पूर्व अनातोलिया के चार प्रांतों का कंट्रोल मिला। ग्रीस को तुर्की के पश्चिमी तट जबकि इटली को तुर्की का दक्षिणी पश्चिमी हिस्सा दे दिया गया।
यह सारा बंटवारा लीग ऑफ नेशंस की निगरानी में
हुआ था। सेकंड वर्ल्ड वॉर से पहले लीग ऑफ नेशंस एक यूएन जैसी संस्था थी। लीग ऑफ
नेशंस ने इस बंटवारे को मान्यता तो दे दी, लेकिन धर्म, भाषा जैसे मसलों पर ध्यान ही
नहीं दिया। अंग्रेज और फ्रांस कितने लापरवाह थे। इस बात से समझिए कि एग्रीमेंट
होने के बाद ब्रिटिश ब्रिगेडियर
जनरल जॉर्ज मैकडोना ने तंज कसते हुए एक कमेंट किया, कहा कि मुझे ऐसा लगता है कि हम
उन शिकारियों जैसे हैं जिन्होंने भालू को मारने से पहले ही उसकी खाल का बटवारा कर
लिया। सबसे पहले यह सोचना चाहिए कि हम ऑटोमन साम्राज्य को हराए कैसे।
साइक्स पिकॉट एग्रीमेंट के तहत मिडिल ईस्ट के बंटवारे की रूपरेखा तैयार हुई लेकिन ब्रिटेन सिर्फ इससे संतुष्ट नहीं था। करते रहिए मीटिंग, मीटिंग के वाक्य के साथ उन्होंने कई और समझौते भी किए। मसलन इन्हीं दिनों मक्का में एक नए लीडर का उदय हो रहा था। हुसैन बिन अली अल हाशमी नाम के एक लीडर ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ अरब विद्रोह को लीड कर रहे थे। वो मिडिल ईस्ट में एक अलग अरब साम्राज्य खड़ा करना चाहते थे। अंग्रेजों ने युद्ध के बीचोबीच उनको भी अपनी तरफ मिला लिया। दोनों पक्षों में एक समझौता हुआ जिसके तहत अरब अंग्रेजों का साथ देंगे, बदले में जीत के बाद उन्हें ऑटोमन साम्राज्य की जमीन का कुछ हिस्सा दिया जाएगा। अब दिलचस्प बात यह है कि यह समझौता साइक्स पिकॉट एग्रीमेंट का उल्लंघन था लेकिन ब्रिटिश क्योंकि वर्ल्ड पावर थे, उन्होंने किसी बात की फिक्र नहीं की। ब्रिटेन का यह दोहरा रवैया यहीं नहीं रुका। उन्होंने फिलिस्तीन के मुद्दे पर भी डबल गेम खेला।
फिलिस्तीन इजराइल का मुद्दा जो आज इतना पेचीदा बन गया है। इसकी शुरुआत भी ब्रिटेन की कारस्तानी के कारण ही हुई थी। ब्रिटेन ने एक तरफ तो अरबों से समझौता किया कि जीत के बाद फिलिस्तीन उनका होगा। दूसरी तरफ उसने यहूदियों से भी वादा कर दिया कि फिलिस्तीन के अंदर उन्हें एक नया राष्ट्र मिलेगा। अब यह समझौता बाल्फोर एग्रीमेंट नाम से जाना जाता है।

बाल्फोर समझौता
बाल्फोर समझौता क्यों हुआ?
19वीं सदी में जियोनिस्ट मूवमेंट अपने चरम सीमा पर था। यहूदी एक अलग देश की मांग कर रहे थे। यहूदी विचारक थियोडोर हर्ज़ल ने कई जगह यहूदियों को बसाने के बारे में सोचा, मगर उन्हें फिलिस्तीन सबसे सही लगा। क्यों? क्योंकि यह यहूदियों की पुरानी मातृभूमि थी। कुछ यहूदी यहां पहले से भी रहते थे। पहले विश्व युद्ध से पहले ही यहूदी फिलिस्तीन में जाकर बसने लगे। इस दौरान ब्रिटेन को लगा कि अगर वो यहूदियों की मांग पूरी करने में उनका साथ देंगे तो वो युद्ध में उनका साथ देंगे।
2 नवंबर 1917 को ब्रिटेन के विदेश सचिव आर्थर जेम्स बाल्फोर ने यहूदियों के एक संगठन को एक लेटर भेजा। इसमें वादा किया गया कि ब्रिटिश सरकार फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक अलग देश बनाए जाने के पक्ष में है। अब तक आपने ब्रिटेन के कई समझौतों के बारे में जाना। यह सब वह युद्ध जीतने के लिए कर रहे थे। युद्ध तो वह जीत भी गए लेकिन उसके बाद शुरू हुआ असली बवाल। ब्रिटेन के तमाम वादे कैसे पूरे होंगे? यह साफ नहीं था। विश्व युद्ध खत्म होने के साथ ही ऑटोमन साम्राज्य भी खत्म हो गया। ब्रिटेन ने फिलिस्तीन और इराक पर कब्जा कर लिया और साइक्स पिकॉट एग्रीमेंट को ताक पर रख दिया। मिडिल ईस्ट (Middle East) अधर में था, लिहाजा इस मुद्दे को सुलझाने के लिए 5 साल तक उठा-पटक चली। अंत में 1923 में अलाइड देशों और तुर्की के बीच एक और समझौता हुआ। एक एग्रीमेंट स्विटजरलैंड के लॉसेन शहर में हुआ इसलिए इसे लॉसेन समझौते के नाम से जाना जाता है।
आज मिडिल ईस्ट (Middle East) का जो नक्शा आप देखते हैं उसकी रूपरेखा लॉसेन समझौते के तहत ही तैयार हुई थी। हालांकि इस समझौते में कई जमीनी विवादों और मतभेदों को नजरअंदाज किया गया। पिछले समझौतों की तरह ही इस समझौते में भी बड़ी ही लापरवाही से सीमाएं तय की गई थी। इस वजह से जो विवाद शुरू हुआ वह आज तक जारी है।
क्या थे वो विवाद
विवाद-1 : ईरान और कुर्द
मिडिल ईस्ट के बंटवारे में कुर्द लोगों के लिए कोई देश नहीं बनाया गया। कुर्द मिडिल ईस्ट का एक बहुत बड़ा जातीय समूह है जो मिडिल ईस्ट के एक बड़े भूभाग जिसे वो लोग कुर्दिस्तान कहते हैं, वहां रहते हैं। यह लोग अपना अलग देश चाहते थे लेकिन उनके इलाके को तुर्की, इराक, ईरान और सीरिया में बांट दिया गया। जबकि उनका कल्चर और भाषा उन देशों से अलग है। कुर्द इन इलाकों में माइनॉरिटी बन गए और तब से ही एक अलग देश की मांग कर रहे हैं। कुर्दो का मुद्दा ईरान और तुर्की के बीच तनाव की एक बहुत बड़ी वजह है।
विवाद-2 : कुवैत और इराक
अंग्रेजों के समझौते ने कुवैत को एक अलग देश बना दिया जो पहले इराक का हिस्सा था। यह बंटवारा करीब 67 साल बाद युद्ध की वजह बना। 1990 में इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन ने कुवैत को फिर अपना हिस्सा बनाने के लिए उस पर हमला कर दिया।
विवाद-3 : लेबनान का सिविल वॉर
लॉसेन समझौते के तहत सीरिया को तोड़कर लेबनॉन नाम का एक अलग देश बना दिया गया। इस पर फ्रांसीसियों का कब्जा रहा। लेबनॉन में ज्यादातर ईसाई लोग रहते थे। इसके बावजूद लेबनॉन बनाने के लिए फ्रांस ने कुछ मुस्लिम इलाकों को भी उसमें जोड़ दिया। इससे वहां तीन तरह की आबादी हो गई शिया सुन्नी और ईसाई। अब इससे असंतुलन बना और लेबनॉन में 1975 से 1990 तक सिविल वॉर छिड़ी रही।
अब बात करते हैं कि मिडिल ईस्ट के सबसे बड़े विवाद की जो आज भी मिडिल ईस्ट के लिए नासूर बन गया है। बाल्फोर समझौते के बारे में आपको बता ही चुके हैं। ब्रिटिश सरकार ने यहूदियों को फिलिस्तीन में बसाना शुरू कर दिया। 1919 से 1923 तक लगभग 35000 यहूदी फिलिस्तीन में आकर बस चुके थे। इसके बाद फिलिस्तीन में अरब, मुस्लिमों और यहूदियों में मतभेद बढ़ने लगे। अंग्रेजों ने फिलिस्तीनिओ को नज़रअंदाज किया, दोनों के बीच तनाव बढ़ता गया। यहूदियों ने अपनी सुरक्षा के लिए आर्मी बनानी शुरू की। इस प्रोजेक्ट को आयरन वॉल नाम दिया गया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1947 में यूएन ने फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांट दिया। एक हिस्सा यहूदियों के लिए बनाया गया और दूसरा फिलिस्तीनिओ के लिए। यरूशलम को इंटरनेशनल एडमिनिट्रेशन के अधिकार में रखा गया। यहूदी संख्या में कम थे, मगर फिलिस्तीन का 62 प्रतीशत हिस्सा इजराइल को दिया गया। 14 मई 1948 को इजराइल ने फिलिस्तीन में खुद को एक समप्रभु देश घोषित कर दिया। इजराइल बनने के बाद मिडिल ईस्ट में फिलिस्तीन के चार बड़े युद्ध लड़े गए हैं। इस तरह ब्रिटेन के युद्ध के समय किए गए वादों ने मिडिल ईस्ट में एक ऐसा विवाद पैदा कर दिया जो आज तक जारी है। मिडिल ईस्ट की वधाली का शिया-सुन्नी विवाद भी एक बहुत बड़ा कारण है। यमन में कई सालों से यह संघर्ष छिड़ा हुआ है। यहां करीब 60 प्रतीशत सुन्नी और 40 प्रतीशत आबादी शिया है। यह देश पिछले कई सालों से अस्थिर है। यहां अधिकांश इलाकों पर हुती विद्रोहियों का कब्जा है। इसे ईरान का समर्थन मिलता है जबकि सऊदी अरब यमन सरकार का साथ देता है। सीरिया में भी शिया-सुन्नी विवाद चल रहा है। वहां की बहुसंख्यक आबादी सुन्नी है जबकि शासन शिया चला रहे हैं। इस वजह से पिछले 12 सालों से वहां जंग चल रही है। यूनाइटेड नेशंस के आंकड़ों की माने तो 5 लाख से ज्यादा लोग इस संघर्ष में मारे गए हैं और 50 लाख से भी ज्यादा लोगों को अपना देश छोड़ना पड़ा है। सालों से बारूद के ढेर पर बैठा मिडिल ईस्ट कब शांत और स्थिर होगा। यह तो भविष्य के गर्भ में ही है।
By Anil Paal
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