हर किसी के मन में यह सवाल जरूर आता है कि केदारनाथ मंदिर (Kedarnath Temple) को आखिर किसने और किस मकसद से बनाया और सबसे चौकाने वाली बात यह है कि केदारनाथ धाम का शिवलिंग बाकी शिवलिंग से इतना अलग क्यों है? इसके पीछे कौन-सा रहस्य छिपा है हजारों साल पहले जब विज्ञान की आज की तरह तरक्की नहीं हुई थी तब उस दौर के लोग इस मंदिर को बनाने के लिए इंटरलॉकिंग जैसी आधुनिक टेक्नोलॉजी को कैसे जानते थे और सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि बिना किसी नुकसान के 400 सालों तक यह मंदिर बर्फ में कैसे दबा रहा। इसके पीछे की कहानी क्या है? जब मंदिर के कपाट छ: महीने के लिए बंद हो जाते हैं तब अंदर जलने वाला दीपक आखिर छः महीने तक कैसे निरंतर जलता रहता है और सबसे बड़ा सवाल 2013 की बाढ़ के समय जब पूरा क्षेत्र तबाह हो गया था तो मंदिर को बचाने के लिए पीछे से आई विशाल भीम शिला किसने रखी। क्या यह सब महज एक संयोग था या किसी दैवीय शक्ति का चमत्कार इन सभी सहस्यमय घटनाओं का जवाब आपको मिलेगें इस लेख में। केदारनाथ धाम (Kedarnath Temple) के अनसुने रहस्य जिनका जवाब शायद आज भी विज्ञान के पास नहीं है।

केदार का अर्थ है दलदल वाली जमीन यह घाटी एक अस्थाई जमीन पर मौजूद है ऐसा लगता है कि केदारनाथ मंदिर (Kedarnath Temple) इस अस्थिर घाटी में सबसे स्थिर जगह पर बना हुआ है। भारत के उत्तराखंड में बसा केदारनाथ धाम (Kedarnath Temple) केवल एक मंदिर नहीं बल्कि आस्था रहस्य और चमत्कारों का अद्भत संगम है। हिमालय की ऊंचाइयों में 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक यह पवित्र स्थल सतियों से भक्तों को अपनी ओर खींचता आया है पर क्या आप जानते हैं कि इस मंदिर के हर पत्थर के पीछे है, अनगिनत कहानियां जो केवल आस्था ही नहीं बल्कि चमत्कारों और विज्ञान से भी जुड़ी हैं।
2013 की आपदा
16 जून 2013 की वह काली रात जब प्रकृति ने अपना तांडव दिखाया और उत्तराखंड के केदारनाथ में हर ओर विनाश कर दिया लेकिन इसी विनाश के बीच एक ऐसा चमत्कार घटा जिसने लोगों की आस्था को और भी गहरा कर दिया आइए हम आपको उस समय की भयावहता और चमत्कार के बारे में बताते हैं, जिसने केदारनाथ मंदिर के बचाया था। उस रात केदारनाथ में बाढ़ का पानी मंदाकिनी नदी से उफनता हुआ आ रहा था। भारी बारिश और चौरा बारी ग्लेशियर के पिघलने से स्थिति और भी भयावह हो गई। पानी, पत्थर और मलबा शहर को अपनी चपेट में लेता जा रहा था। जहां पहले पहाड़ों की सुंदरता थी, वहां अब विनाश का तांडव था। होटल, घर, दुकाने सब कुछ बहा ले गया। करीबन 6000 लोग मारे गए और लाखों बाेघर हो गए लेकिन एक बात साफ थी यह आपदा केदारनाथ मंदिर की ओर बढ़ रही थी क्या यह भगवान शिव के पवित्र धाम को तबाह करने वाली थी। जैसे ही पानी मंदिर की ओर बढ़ा अचानक एक विशाल शिला जिसे अब भीम शिला कहा जाता है। पानी के बहाव के साथ बहती हुई मंदिर के पीछे आकर रुक गई। वह पत्थर मंदिर के करीब 50 फीट पीछे रुक गया और बाढ़ के पानी को दो हिस्सों में बांट दिया। उस क्षण मानो भगवान शिव की स्वयं कृपा ने मंदिर को तबाही से बचा लिया। बाढ़ का सारा पानी भीम शिला से टकराकर मंदिर के दोनों ओर से बह गया। आसपास के सभी ढांचे बह गए लेकिन मंदिर शिव का यह पवित्र धाम चमत्कारिक रुप से सुरक्षित बचा रहा। यह सिर्फ एक घटना नहीं थी, यह शिव के प्रति भक्तों की आस्था का जीवंत प्रमाण बन गया। इस विशाल शिला को स्थानीय लोगों ने भीम शिला का नाम दिया। महाभारत के वीर योद्धा भीम के नाम पर रखी गई यह शिला अब केदारनाथ धाम के चमत्कार की प्रतीक बन चुकी है। इसका नाम भीम शिला ही क्यों रखा गया और पांडव का केदारनाथ से क्या संबंध था। वह हम आगे बात करेंगे।

लोगों का मानना है कि यह भगवान शिव की कृपा और महाभारत के भीम की शक्ति का प्रतीक है। आज भी भक्त इस शिला की पूजा करते हैं। इसे मंदिर के दर्शन का अभिन्न अंग मानते हैं। वैज्ञानिक भी इस घटना से हैरान रह गए। उनका मानना है कि यह पत्थर पहाड़ से खिसक कर बहता हुआ नीचे आ गया था लेकिन यह कैसे संभव हुआ कि यह शिला मंदिर के ठीक पीछे आकर रुकी और पानी के बहाव को दो हिस्सों में बांट दिया। यह शिला लगभग 20 से 25 फीट लंबी और 10 से 15 फीट चौड़ी थी। इसका वजन लगभग 1000 मेट्रिक टन का माना जाता है। अगर यह शिला मंदिर से टकराती तो मंदिर को पूरी तरह नष्ट कर देती। उस समय मंदिर में करीबन 300 लोग ने शरण ली हुई थी और इस शिला की वजह से उन सबकी जान बच गई। हम सबके मन में यह सवाल जरूर आता है कि 2013 की इतनी भयंकर जल प्रलय के बावजूद केदारनाथ मंदिर आज भी कैसे सुरक्षित खड़ा है।
इसका जवाब छुपा है प्रचीन इंटरलॉकिंग टेक्नोलॉजी में। इस तकनीक से मंदिर के भारी पत्थरों को बिना किसी गारे या सीमेंट के इस तरह जोड़ा गया कि वह एक दूसरे में पूरी तरह फिट हो गए। हजारों साल पहले जब तकनीक और आधुनिक उपकरणों का कोई नामो निशान भी नहीं था, तब इस मंदिर को भारी पत्थरों से बनाया गया। प्राचीन भारतीय कारीगरों ने पत्थरों को इस प्रकार तराशा कि वह एक दूसरे में एकदम सटीक तरीके से लॉक हो जाते थे। इस तकनीक ने मंदिर को प्राकृतिक आपदाओं से बचाया है चाहे वह भूकंप हो, भारी हिमपात हो या फिर बाढ़। 2013 की भयंकर बाढ़ के दौरान जब पूरा क्षेत्र तबाह हो गया था, फिर भी केदारनाथ मंदिर पूरी तरह सुरक्षित रहा। यही नहीं इस मंदिर की दीवारें आज भी वैसे ही खड़ी हैं जैसे सदियों पहले थी। यह इंटरलॉकिंग तकनीक ही थी, जिसने पत्थरों को इतना मजबूत बना दिया कि उन्हें कोई आपदा हिला नहीं सकी। एक तकनीक जो आज भी वैज्ञानिकों को चौका रही है, यही है भारतीय वास्तुकला का कमाल। हमारे मन में सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि आखिर किसने इतनी मजबूत और अत्याधुनिक तकनीक से केदारनाथ मंदिर का निर्माण किया। इसके पीछे की कहानी और इतिहास को जानना बेहद दिलचस्प है तो चलिए हम शुरुआत से ही इस पवित्र मंदिर के इतिहास की गहराइयों में झांकते हैं और समझते हैं कि किसने और कैसे इस अद्भुत मंदिर का निर्माण किया।

मंदिर का निर्माण
केदारनाथ मंदिर (Kedarnath Temple) का निर्माण अत्यंत रहस्यमय और प्राचीन माना जाता है। यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है बल्कि इसके निर्माण के साथ जुड़ी पौराणिक कथाएं इस स्थल को और भी अधिक अलौकिक और रहस्यमय बनाती हैं। हम तीन कथा पर बात करेंगे, जिसमें सबसे प्रसिद्ध कथा है महाभारत की तो आइए जानते हैं। इस मंदिर के निर्माण के बारे में धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया। लगभग चार दशकों तक उन्होंने हस्तिनापुर पर शासन किया। एक दिन पांडव भगवान श्री कृष्ण के साथ बैठकर महाभारत युद्ध की समीक्षा कर रहे थे। उस समय पांडवों ने श्री कृष्ण से कहा- हे नारायण हम भाइयों पर अपने बंधु और गुरुजनों की हत्या का कलंक है। इस कलंक को कैसे मिटाया जाए। श्री कृष्ण ने उत्तर दिया, भले ही तुमने युद्ध में विजय प्राप्त की हो लेकिन तुमने अपने बंधु-बांधव का वध किया है और इसके कारण तुम पाप के भागी बने हो इन पापों से मुक्ति सिर्फ महादेव ही दिला सकते हैं। इसलिए अब समय आ गया है कि तुम महादेव की शरण में जाओ। इसके बाद श्री कृष्ष द्वारिका लौट गए और पांडव पापों से मुक्ति के लिए चिंतित रहने लगे। उसी दौरान पांडवों को खबर मिली कि भगवान श्री कृष्ण ने अपना देह त्याग दिया है। इस दुखद समाचार ने पांडवों को झकझोर दिया। अब जब उनके सदा के सहायक कृष्ण भी नहीं रहे। पांडवों ने आपने राज्य परीक्षित को सौंप दिया और द्रौपदी सहित भगवान शिव की तलाश में निकल पड़े। सबसे पहले पांडव काशी पहुंचे लेकिन वहां भोलेनाथ के दर्शन नहीं हुए। वे कई अन्य स्थानों पर भी गए, परंतु जहां भी पांडव पहुंचते शिवजी वहां से चले जाते।
इस खोज में वे एक दिन हिमालय तक आ पहुंचे तब भगवान शिव ने पांडवों को आता देख नंदी का रुप धारण कर लिया और पशुओं के झुंड में चले गए। भगवान शिव को पाने के लिए भीम ने एक योजना बनाई। उन्होंने विशाल रुप धारण कर अपने पैर केदार पर्वत के दोनों ओर फैला दिए ताकि कोई भी पशु उनके पैरों के बीच से निकल सके लेकिन नंदी रुपी भगवान शिव ने ऐसा नहीं किया। तभी भीम ने नंदी को पहचान लिया और पकड़ने का प्रयास किया लेकिन शिवजी धरती में समाने लगे। भीम ने उनका पिछला हिस्सा पकड़ लिया। भगवान शिव पांडवों की भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन देकर उनके पापों से मुक्त कर दिया। तभी से भगवान शिव यहां नंदी की पीठ के रुप में पूजे जाते हैं। इसी वजह से केदारनाथ का शिवलिंग बाकी शिवलिंग से अलग है।
ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान शिव ने पांडवों को उनके पापों से मुक्त किया और उनका प्रायश्चित स्वीकार किया तब पांडवों ने केदारनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। यह भी कहा जाता है कि भगवान शिव का शरीर पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में प्रकट हुआ। जिससे पंच केदार की उत्पत्ति हुई। भगवान शिव का शरीर नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में, भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभी मद्महेश्वर में और जटाए कल्पेश्वर में प्रकट हुई। यही पांच स्थान पंच केदार के रुप में पूजित है। केदारनाथ को पंच केदार में सबसे प्रमुख माना जाता है क्योंकि यहां भगवान शिव के पीठ रूप की पूजा की जाती है।

केदारनाथ मंदिर (Kedarnath Temple) निर्माण का दूसरा सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण पौराणिक संदर्भ भगवान विष्णु के अवतार नर नारायण ऋषि की तपस्या से जुड़ा हुआ है। शिव पुराण की कोटि रुद्र संहिता में उल्लेख है कि बद्री वन में भगवान विष्णु के अवतार नर नारायण पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनकी पूजा करते थे। कहा जाता है कि नर नारायण की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव उनके सामने प्रकट हुए और उनसे वरदान मांगने को कहा नर नारायण ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे इस पवित्र स्थान पर सदैव ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करें ताकि सभी भक्त उन्हें साक्षात देख सके। भगवान शिव ने यह वरदान स्वीकार किया और तब से यहां उनकी पूजा ज्योतिर्लिंग का रूप में होती है। इस कथा के अनुसार केदारनाथ का ज्योतिर्लिंग भगवान शिव का एक महत्त्वपूर्ण रूप है, जो नर नारायण की तपस्या के कारण स्थापित हुआ। यह स्थान शिव और विष्णु की अद्वितीय एकता का प्रतीक है। जहां शिवजी केदारनाथ में ज्योतिर्लिंग के रूप में और विष्णु जी बद्रीनाथ धाम में विराजमान हैं।
कहा जाता है कि आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया और हिंदू धर्म के पुनर्जागरण में महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने केदारनाथ मंदिर में ज्योतिर्लिंग की स्थापना की और इस मंदिर को एक प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया। आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ में अपने अंतिम दिन बिताए और यहीं पर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उनकी समाधि आज भी केदारनाथ मंदिर के पीछे स्थित है। जहां भक्त उनकी पूजा और स्मरण करते हैं। प्रमुख इतिहासकार डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल का मानना है कि शैव संप्रदाय के अनुयाई आदि शंकराचार्य और उनके छात्रों के आने से बहुत पहले इस क्षेत्र में सक्रिय थे। इस मान्यता के आधार पर यह संभव है कि मंदिर की प्राचीनता को सटीक रूप से निर्धारित करना मुश्किल हो। खासकर जब पाली या ब्राह्मी भाषा में लिखी गई लिपि को अब तक पूरी तरह पढ़ा नहीं जा सका है।
मध्य प्रदेश के ग्वालियर राज्य में पाए गए एक पत्थर के शिलालेख से यह पुष्टि होती है कि मालवा के राजा भोज जिन्होंने 1077 से 1099 ईसवी तक शासन किया था। वह केदारनाथ मंदिर के निर्माण के लिए जिम्मेदार थे। इस दावे का समर्थन एपिग्राफिया इंडिका खंड 1, नामक ग्रंथ से भी होता है। यह शिलालेख एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है जो राजा भोज के समय के दौरान मंदिर के निर्माण का संकेत देता है। साल 1882 में लिखे गए हिमालयन गज़ेटियर के अनुसार केदारनाथ मंदिर का एक बड़ा हिस्सा पत्थर से निर्मित है, जिसमें सोने की परत चढ़ी हुआ एक टॉवर गर्भगृह की छत पर मौजूद है। मंदिर के सामने पंडों के पक्के मकान तीर्थ यात्रियों के ठहरने के लिए हैं, जबकि पुजारी या पुरोहित भवन के दक्षिणी ओर रहते हैं। इस विवरण के अनुसार मंदिर का वर्तमान ढांचा अपेक्षाकृत नया है। जबकि पुराना भवन गिरकर नष्ट हो चुका था।

छोटा हिमयुग
अब हम आपको एक ऐसे अध्याय में लेकर जा रहे हैं जो आपको हैरान कर देगा। यह केदारनाथ धाम के इतिहास का वह हिस्सा है, जब यह भव्य मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा और फिर भी सुरक्षित बचा रहा। यह कैसे संभव हुआ? क्या यह भगवान शिव की कृपा थी या प्रकृति के अद्भुत विज्ञान का चमत्कार। इस रहस्य को समझने के लिए हमें इतिहास के पन्नों में और गहरा उतरना होगा। ऐसा कहा जाता है कि 13वीं से 17वीं शताब्दी तक केदारनाथ मंदिर लगभग 400 वर्षों तक बर्फ की मोटी परत के नीचे दबा रहा। इसे छोटा हिमयुग भी कहा जाता है। जब हिमालय में ग्लेशियरों का विस्तार इतना बढ़ गया था कि केदारनाथ धाम जैसे बड़े क्षेत्र पूरी तरह बर्फ में समा गए लेकिन सबसे चौकाने वाली बात यह है कि इतने वर्षों तक बर्फ के नीचे दबे रहने के बावजूद मंदिर की संरचना को कोई गंभीर नुकसान नहीं पहुंचा। देहरादून स्थित वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक विजय जोशी के नेतृत्व में इस क्षेत्र की गहन जांच की गई और यह पाया गया कि मंदिर की दीवारों और पत्थरों पर आज भी बर्फ के दबाव और हिमनदिय गतिविधियों के निशान साफ देखे जा सकते हैं, लेकिन जो सबसे खास बात सामने आई वह थी मंदिर की पत्थरों की लुमिनस डेटिंग। जिससे यह प्रमाणित हुआ कि मंदिर उस दौर में बर्फ के नीचे दबा रहा तो क्या यह केवल स्थापत्य कौशल था या कोई और रहस्यमय शक्ति। केदारनाथ मंदिर की मजबूत संरचना ने इसे बर्फ के नीचे दबने के बावजूद पूरी तरह से सुरक्षित रखा। मंदिर का निर्माण विशाल पत्थरों से हुआ है। जिन्हें इंटरलॉकिंग तकनीक से जोड़ा गया है, बिना सीमेंट के इन पत्थरों की आपस में जकड़ इतनी मजबूत थी कि बर्फ का भारी दबाव भी इसे हिला नहीं सका।
केदारनाथ-रामेश्वरम का रहस्य
अब हम आपको एक ऐसे रहस्य से परिचित कराने जा रहे हैं, जिसने आधुनिक वैज्ञानिकों को भी हैरान कर दिया है। केदारनाथ और रामेश्वरम के बीच का गहरा जियोमेट्रिक्ल अलाइनमेंट, यह वाकई एक चौकाने वाली बात है। सोचिए यह दोनों मंदिर एक सीधी रेखा में कैसे हो सकते हैं, जबकि यह हजारों किलोमीटर दूर है। जब आप इस रहस्य के बारे में जानेंगे तो हैरान रह जाएंगे।
यह प्राचीन भारतीय ज्ञान और वास्तुकला का एक अद्भुत उदाहरण है। जिसे आज की आधुनिक दुनिया में समझना कठिन है। क्या आपने कभी सोचा है कि केदारनाथ और रामेश्वरम जैसे दूरस्थ मंदिर कैसे एक ही रेखा पर हो सकते हैं। यह रहस्य न सिर्फ श्रद्धालुओं को बल्कि वैज्ञानिकों को भी हैरान कर चुका है। उत्तराखंड के केदारनाथ और दक्षिण भारत के रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग जो 79 डिग्री देशांतर रेखा पर स्थित है लेकिन यही नहीं इनके बीच पांच और शिव मंदिर हैं जो सृष्टि के पंच तत्वों जल, वायु, अग्नि, आकाश और धरती का प्रतिनिधित्व करते हैं। अब सोचिए हजारों साल पहले जब उपग्रह तकनीक या जीपीएस जैसी कोई आधुनिक तकनीक नहीं थी, तब भी हमारे प्राचीन वास्तुकार ने इतनी सटीकता से इन मंदिरों को एक सीध रेखा में कैसे स्थापित किया। यह जानकर हैरानी होती है कि केदारनाथ और रामेश्वरम के बीच 2383 किलोमीटर की दूरी है और इन सातों मंदिरों का एक ही रेखा में होना महज संयोग नहीं हो सकता। इन मंदिरों की स्थापना 1500 से 2000 साल पहले हुई थी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह एक अद्भुत जियोमेट्रिक्ल अलाइनमेंट का हिस्सा है। यह सिर्फ धार्मिक नहीं बल्कि ब्रह्मांडी संतुलन की भी एक झलक देता है। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे पूर्वजों के पास गहरे वास्तुकला और भूगोल का ज्ञान था।
अब आइए इस अद्भुत 79 डिग्री देशांतर रेखा के बारे में बात करते है। इस रेखा पर केदारनाथ और रामेश्वरम के बीच पांच और महत्त्वपूर्ण मंदिर स्थित है कालेश्वर, श्री कालाहस्ती, एकंबरेश्वर, अरुणाचलेश्वर और चिदंबरम मंदिर। यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि कैसे प्राचीन वास्तुकार ने बिना किसी आधुनिक तकनीक के यह सब किया।
उज्जैन के महर्षि पाणिनी संस्कृत विश्व विद्यालय के प्रोफेसर डॉक्टर उपेंद्र भार्गव का भी यही कहना है। यह तथ्य सही है कि यह मंदिर 79 डिग्री देशांतर पर स्थित है, हालांकि इनकी स्थापना अलग-अलग समय पर हुई। इसलिए यह कहना कठिन है कि इन्हें किसी विशेष जियोमेट्रिक्ल अलाइनमेंट के तहत बनाया गया था, लेकिन एक बात निश्चित है कि इन मंदिरों की स्थापना में अक्षांश और देशांतर का पूरा ध्यान रखा गया था और वास्तु सिद्धांतों का सटीक पालन किया गया है। यह रहस्य आज भी बना हुआ है। जो हमें प्राचीन भारतीय ज्ञान और विज्ञान की गहराई से रुबरु कराता है।

केदारनाथ के अविरत दीपक का रहस्य
अब हम केदारनाथ के उस रहस्य की बात करते हैं जो सालों से भक्तों और वैज्ञानिकों को हैरान कर रहा है। हर साल जब केदारनाथ मंदिर के कपाट सर्दियों में बंद हो जाते हैं तो मंदिर के अंदर जलने वाला दीपक अगले छः महीने तक बिना बुझे जलता रहता है। यह कैसे संभव है जबकि कोई भी व्यक्ति वहां मौजूद नहीं होता है और इतना ही नहीं जब मंदिर के कपाट बंद होते हैं तो सवाल यह उठता है कि इस दौरान शिवलिंग की पूजा कौन करता है। मंदिर के कपाट बंद होने के बाद यह रहस्यमय घटनाएं आज भी लोगों के लिए एक गहरे आश्चर्य का विषय हैं। जिसे न तो पूरी तरह से समझा जा सका है और न ही वैज्ञानिक इसका कोई ठोस प्रमाण दे पाए हैं।
हर साल सर्दियों में भाई दूज के बाद जब बर्फ की सफेद चादर हिमालय पर फैल जाती है और इंसानों की पहुंच इस ऊंचाई तक नामुमकिन हो जाती है, तब केदारनाथ के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। करीब छः महीने तक यह मंदिर बंद रहता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब सर्दियों के दौरान केदारनाथ मंदिर के कपाट बंद होते हैं तब देवता और गंधर्व यहां आकर भगवान शिव की पूजा करते हैं। यह माना जाता है कि जब मंदिर में आम लोगों की पूजा बंद हो जाती है तब भगवान शिव देवताओं और गंधर्व के साथ यहां निवास करते हैं।
जब मंदिर के कपाट बंद किए जाते हैं तब मंदिर के अंदर एक दीपक जलाया जाता है। यह दीपक बिना किसी देखरेख के पूरे छः महीने तक अविरत जलता रहता है और जब कपाट फिर से खोले जाते हैं, तब यह दीपक जलता हुआ मिलता है जैसे मानो उस जगह पर शिव की दिव्यता कभी भी नहीं बुझती। क्या यह सच में किसी चमत्कार से कम है एक ऐसा दीपक जो इंसानों की अनुपस्थिति में भी लगातार जलता रहता है और वह भी महीनों तक। इस रहस्यमय घटना ने भक्तों के दिलों में गहरा विश्वास पैदा किया है। इसलिए यह इस बात का प्रमाण है कि भगवान शिव की स्थिति यहां हर समय बनी रहती है और जब इंसान दूर होते हैं तब भी यह धाम खाली नहीं होता क्योंकि देवताओं का आगमन होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण सो छः महीने तक जलने वाला दीपक और मंदिर की स्वच्छता अभी भी एक रहस्य है।
कपाट बंद होने के दौरान भगवान शिव की प्रतिमा और मंदिर से जुड़े धार्मिक प्रतीक (जिन्हें दंडी कहा जाता है) को विशेष सम्मान के साथ ऊखीमठ ले जाया जाता है। ऊखीमठ उत्तराखंड का एक पवित्र स्थल है, जहां भगवान केदारनाथ के विग्रह को सर्दियों के दौरान सुरक्षित रखा जाता है।वहां भगवान शिव की पूजा छः महीने तक नियमित रूप से जारी रहती है। ऊखीमठ वह स्थान है, जहां मंदाकिनी और अलकनंदा नदियां मिलती हैं और इसे केदारनाथ के शीतकालीन धाम के रूप में जाना जाता है। मंदिर के मुख्य पुजारी और अन्य पुरोहित सह-सम्मान भगवान शिव की प्रतिमा को लेकर पहाड़ के नीचे ऊखीमठ जाते हैं। यह प्रक्रिया विशेष मंत्रोच्चारण और अनुष्ठानों के साथ की जाती है।
केदारनाथ मंदिर की पूजा व्यवस्था बहुत ही विशेष और प्राचीन परंपराओं से जुड़ी हुई है। इस मंदिर में पू्जा का संचालन विशेष रूप से कर्नाटक के वीरा शैव जंगम समुदाय के पुजारियो द्वारा किया जाता है, जिन्हें रावल कहा जाता है। रावल पुजारी यहां के मुख्य पुजारी होते हैं और भगवान शिव के सभी अनुष्ठानों का संचालन करते हैं। यह परंपरा सदियों पुरानी और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। रावल पुजारी कर्नाटक के इसी समुदाय से चुने जाते हैं और उनके परिवार के लोग ही इस विशेष भूमिका को निभाते हैं। खास बात यह है कि केदारनाथ मंदिर के सभी प्रमुख अनुष्ठान कन्नड़ भाषा में ही संपन्न होते हैं। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है और आज भी इसका पूरी श्रद्धा और विधि से पालन किया जाता है।
यह था केदारनाथ मंदिर (Kedarnath Temple) का वह रहस्य, भीम शिला (Bheem Shila) का चमत्कार, मंदिर का अलौकिक निर्माण, 400 साल तक बर्फ में दबे रहना, देवताओं और गंधर्व की पूजा, छः महीने तक अविरत जलने वाला दीपक और भक्तों की अटूट आस्था यह सब सिर्फ एक धार्मिक कथा नहीं है, बल्कि उस अलौकिक शक्ति का प्रतीक है जो भगवान शिव के इस पवित्र धाम को अनंत काल तक पावन बनाए रखती है। यह मंदिर हमें एक और वैज्ञानिक रहस्यों से हैरान करता है तो दूसरी ओर हमारी आस्था को और भी मजबूत बनाता है।
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By Anil Paal
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