हमारे सनातन धर्म में साधु संतों को बहुत अधिक महत्व दिया गया है, क्योंकि साधु संत भौतिक सुखों का त्याग कर सत्य व धर्म के मार्ग पर निकल जाते हैं। यह साधु जो अपने जीवन का हर हिस्सा तंत्र योग और गुण साधना में लगाते हैं। सिर्फ एक सन्यासी नहीं होते बल्कि यह एक योद्धा भी होते हैं। हम इनके बारे में जितना जानने का प्रयास करते हैं, उतना ही कम लगता है। आज हम जिन साधुओं की बात कर रहे हैं, वे हैं नागा साधु।

एक ऐसा नाम जो सुनते ही दिल में रोमांच भर देता है। नग्न भभूत से ढके और बाहरी दुनिया से कटे हुए इन साधुओं के बारे में कहा जाता है कि यह परलोक से सीधा जुड़ चुके हैं। इनके जीवन का हर पहलू इनकी साधना इनका व्यवहार यहां तक कि इनका निवास स्थान सब कुछ रहस्य और सस्पेंस से घिरा हुआ है। Naga sadhu बनने का सफर आसान नहीं होता। यह एक ऐसी यात्रा है जिसमें ना सिर्फ अपनी पहचान छोड़नी पड़ती है, बल्कि उस दुनिया से भी नाता तोड़ना होता है जिसे हम और आप जानते हैं।
अगर आपको लगता है कि नागा साधु सिर्फ अपने लिबास और अंदाज के लिए खास हैं, तो इस आर्टिक्ल को पढ़ने के बाद आप यह जरूर जान पाएंगे कि इनके जीवन में छिपा है एक गहरा और अद्वितीय रहस्य। ऐसा अद्वितीय रहस्य जिसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं।
किस तरह से अस्तित्व में आए नागा साधु
जितने यह नागा साधु दिखने में विचित्र लगते हैं, उतना ही इनका इतिहास भी विचित्र है। नागा साधुओं की उत्पत्ति को लेकर अलग-अलग बातें सुनने को मिलती है। कुछ मानते हैं कि नागा साधुओं की उत्पत्ति भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय से जुड़ी हुई है। इसको लेकर एक कथा है जिसके अनुसार पूर्व काल में अधमकर नामक एक दैत्य रूपी राजा था, जिसका कहना था कि वह स्वयं भगवान है और लोग उसकी पूजा करें ना कि। किसी और भगवान की उसने पूरी पृथ्वी पर अपना आतंक मचा रखा था, तब भगवान दत्तात्रेय ने इस असुर राजा से मुक्ति दिलाने के लिए अपने शरीर पर एक दिव्य आभा का निर्माण किया। जिसमें लंबे केश और दाढ़ी के साथ मूछ और बदन पर एक भी कपड़ा नहीं और पूरे शरीर पर भगवान शिव की विभूति लपेटे गले में 11 मुखी रुद्राक्ष पहने और हाथ में त्रिशूल लिए एक साधु की उत्पत्ति हुई। जिसे लोगों ने नग्न साधु बुलाया यही नग्न साधु आगे चलकर नागा साधु कहलाए।
वही कुछ लोगों का कहना है कि नागा साधुओं को एक संगठित रूप देने का श्रेय आदि गुरु शंकराचार्य जी को जाता है। क्योंकि जब उन्हें ऐसा लगा कि जितने भी राजा महाराजा है यह सभी अच्छे वारियर्स तो है, लेकिन यह हथियार अपनी प्रजा और अपने महल की रक्षा के लिए उठा रहे हैं। धर्म की रक्षा के लिए कोई भी आगे नहीं आ रहा है। आदि गुरु शंकराचार्य इस चीज को समझ चुके थे कि धर्म की रक्षा शास्त्रों से नहीं होने वाली है इसके लिए शस्त्र उठाने ही पड़ेंगे। इसी बात को ध्यान में रखकर आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण किया। इनमें गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मय धर्म की रक्षा करने वाले लोगों का एक ग्रुप बनाया, जिसे आगे चलकर नागा साधु कहा गया।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया
नागा साधु कहना बहुत आसान है, लेकिन एक व्यक्ति का नागा साधु बनना बहुत ही मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि हर कोई व्यक्ति नागा साधु नहीं बन सकता। नागा साधु कोई भी बन सकता है, लेकिन नागा साधु बनने के लिए जो जिगरा चाहिए, वह हर किसी में नहीं होता। जब कोई इंसान नागा साधु बनने की सोचता है तब उससे पहले उसे कई परीक्षाओं से गुजरना होता है। किसी भी व्यक्ति को सरलता से नागा साधु बनाने की अनुमति नहीं मिलती है। जो इंसान नागा साधु बनना चाहता है, उसे अखाड़े में बुला लिया जाता है। जब भी कोई व्यक्ति नागा साधु बनने की इच्छा लेकर अखाड़े में जाता है तो अखाड़ा अपने स्तर पर उसकी पूरी तरह से जांच करता है। इसके बाद ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के उपरांत व्यक्ति के ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। जिसमें 6 महीने से लेकर 12 वर्षों तक का समय भी लग सकता है।
इसके बाद व्यक्ति को गंगा की शपथ दिलाई जाती है कि वह परिवार में नहीं जाएगा और न ही विवाह करेगा। वह अपने पूरे जीवन समाज से अलग रहेगा। उसके अंदर किसी भी व्यक्ति के लिए ईर्ष्या की भावना नहीं रहेगी और वह हमेशा ईश्वर की भक्ति में ही लीन रहेगा। उसे दुनिया के भौतिक सुखों और समाज से सभी रिश्ते नातों को तोड़ना होगा। जब व्यक्ति अखाड़े के अंदर रहता है तो उसका गुरु उसकी हर एक एक्टिविटी को नोट करता है और जब उसके गुरु को लगता है कि व्यक्ति दीक्षा लेने के योग्य हो चुका है, तब उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं जिन्हें पंच देव कहकर पुकारा जाता है। यह पांच देव हैं विष्णु, शक्ति, शिव, सूर्य तथा गणेश।
इसके बाद गुरु उस शिष्य को भस्म, भगवा, रुद्राक्ष आदि देते हैं। दीक्षा के वक्त नागा साधुओं को एक गुरु मंत्र भी दिया जाता है तथा नागा साधुओं को उस मंत्र में पूरी आस्था रखनी होती है, क्योंकि उनकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरुमंत्र पर आधारित होती है। इसलिए यह मंत्र नागा साधुओं के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। इसके बाद गुरु अपने शिष्य को हमेशा के लिए वस्त्रों का त्याग करने की शपथ दिलाते हैं और उनके शरीर पर जो भी कपड़ा होता है, उसे उतारने के लिए कहा जाता है। इसके बाद अवधूत के रूप में दीक्षा लेने के लिए उन्हें स्वयं का पिंड दान भी करना होता है। जिसका मतलब यह होता है कि वह संसार और अपने परिवार के लिए मृत हो चुके हैं। उनके जीवन का बस एक ही उद्देश्य है सनातन तथा वैदिक धर्म की रक्षा के लिए अपना जीवन व्यतीत करना। इतना ही नहीं खुद का पिंड दान करने के साथ ही साथ उनसे परिवार के सदस्यों का भी पिंड दान करवाया जाता है। अगर कोई व्यक्ति इस प्रक्रिया में थोड़ा बहुत भी झिंझक है तो उसे उसी समय अखाड़े से बाहर कर दिया जाता है। वही जो इस प्रक्रिया को पूरा कर लेते हैं, उन्हें आगे की प्रक्रिया करनी होती है। जिसके अंदर उन्हें अपने लिंग को निष्क्रिय करना होता है। इस प्रक्रिया को करने से पहले व्यक्ति को नागा रूप में कंधे पर एक दंड और मिट्टी का बर्तन लेकर अखाड़े के ध्वज के नीचे 24 घंटे बिना कुछ खाए पिए खड़ा होना पड़ता है। यह सब अखाड़े के पहरेदार की निगरानी में किया जाता है। इसके बाद अखाड़े के साधु वैदिक मंत्रों के साथ झटका देकर उनके लिंग को निष्क्रिय कर देते हैं। इसके बाद उनके लिंग में कभी इरेक्शन नहीं आता। यह अंतिम प्रक्रिया होती है, इसके पश्चात व्यक्ति नागा साधु बन जाता है।
नागा साधुओ के नियम
जब कोई व्यक्ति नागा साधु बनने की पूरी प्रक्रिया को पार कर लेता है। उसके बाद उसे नागा सन्यासी के लिए बनाए गए नियमों के आधार पर ही जीवन जीना होता है, जो बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है। दीक्षा लेने के बाद एक नागा साधु को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन तथा अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण तो करना ही होता है। इसके साथ ही कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी होती है। उनके गुरु उन्हें जो भी आदेश दे फिर चाहे वह उनके हित में हो या ना हो नागा साधु को उनके आदेश को मानना पड़ता है। इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति नागा साधु बन जाता है तो उसे हमेशा के लिए अपने वस्त्रों का त्याग करना होता है। वह चाहकर भी कोई वस्त्र धारण नहीं कर सकता है। इसीलिए आपने देखा होगा कि कोई भी नागा साधु आपको क कभी भी वस्त्र में नहीं दिखाई देगा। परंतु कुछ साधु ऐसे भी हैं जो विशेष परिस्थिति में छाल अथवा गेरूए वस्त्र पहनते हैं, परंतु उन्हें एक से अधिक गेरुआ वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं होती है।
अक्सर आपने स्त्रियों को श्रृंगार करते हुए देखा होगा, लेकिन नागा साधु भी श्रृंगार करने में पीछे नहीं है। हालांकि इनका श्रृंगार स्त्रियों से अनोखा जरूर होता है। यह अपने शरीर पर विभूति तथा रुद्राक्ष तो धारण करते ही हैं, साथ ही जहां एक तरफ 16 श्रृंगार को महिलाओं का आदर्श श्रृंगार माना जाता है। वही यह नागा साधु 17 प्रकार के श्रृंगार से स्वयं को सुशोभित करते हैं। जिनमें भभूत, माथे पर रोली का लेप तथा पैरों में चांदी या लोहे का कड़ा शामिल है। नागा साधुओं को या तो सारे केशों का त्याग करना होता है या फिर जटा धारण करनी होती है। इसलिए आपने देखा होगा लगभग सभी नागा साधु जटा धारण करके रखते हैं। कहा जाता है कि नागा साधुओं की जटाए उनका अभिमान होती है, इसलिए नागा साधु अपनी जटा को बहुत संभाल कर रखते हैं। नागा सन्यासियों को अपनी लंबी जटाओं को बिना किसी भौतिक सामग्री का इस्तेमाल किए हुए रेत और भस्म से ही संवारना पड़ता है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इन साधुओं की जटाए 10 फीट तक लंबी होती है। इतनी लंबी जटाओं को बढ़ाने में करीब 30 से 40 साल तक लग जाते हैं। इन जटाओं को संभालना बेहद ही मुश्किल भरा काम होता है लेकिन नागा साधु बड़ी ही बखूबी से इन जटाओं को संभालते हैं। नागा साधुओं के 17 श्रृंगार में पंच केश का बहुत महत्व है। इसमें बालों को पांच बार घुमाकर लपेटा जाता है।
नागा सन्यासी भिक्षा द्वारा ही अपना जीवन यापन करते हैं तथा नागा साधु अधिक से अधिक सात घरों में ही भिक्षा मांग सकते हैं और अगर उन्हे सात घरों में भिक्षा ना मिले तब उन्हें भूखे ही रहना पड़ता है। नागा साधुओं के अंदर इतनी क्षमता मौजूद होती है कि अगर उन्हें 15 दिनों तक भी खाना ना दिया जाए, तब भी वे बिना किसी परेशानी के जीवित रह सकते हैं। नागा साधुओं को अपनी पसंद नापसंद को छोड़कर उन्हें जो भी भिक्षा से प्राप्त होता है। उसे प्रेम से ग्रहण करना होता है और एक दिन में केवल एक समय ही भोजन ग्रहण करना होता है। जहां एक सामान्य व्यक्ति खाट या पलंग पर सोना पसंद करता है। वही एक नागा सन्यासी खाट या पलंग में से किसी का भी इस्तेमाल नहीं कर सकता है। यहां तक कि उन्हें गद्दे पर सोने की अनुमति भी नहीं होती, इसलिए जो सच्चा नागा साधु होता है वह हमेशा जमीन पर ही सोता है।
अगर आपको कोई नागा साधु बिस्तर पर सोता हुआ दिखे तो समझ लेना वह एक नंबर का पाखंडी इंसान है, वह नागा साधु नहीं है। अब सबसे जरूरी बात जो बहुत कम लोगों को पता होती है। वह यह है कि नागा सन्यासी कभी भी किसी सामान्य व्यक्ति को प्रणाम नहीं कर सकते हैं। सामान्य व्यक्ति ही उन्हें प्रणाम करके उनका अभिवादन कर सकता है। इसके अलावा नागा साधुओं का संसार और गृहस्थ जीवन से कोई लेना देना नहीं होता है। वे दिन भर केवल अभिवादन मंत्र का ही जाप करते रहते हैं। नागा साधुओं का अभिवादन मंत्र ओम नमोः नारायण है और शिव के भक्त नागा साधु शिव के अलावा किसी को भी नहीं मानते हैं। वे त्रिशूल, डमरू, रुद्राक्ष, तलवार, शंख, कुंडल, कमंडल, कड़ा, चिमटा, कमरबंद, चिलम, धुनि के अलावा भभूत आदि रखते हैं।
नागा साधुओं की दिनचर्या
नागा साधुओं के दीक्षा लेने से लेकर उनकी मृत्यु तक का पथ कठिनाइयों से भरा होता है। कंप कपाती सर्दी हो या फिर तेज गर्मी इनकी दिनचर्या मध्य रात्रि के 3:00 बजे से शुरू हो जाती है। नागा साधु सुबह उठते ही स्नान के बाद तपस्या शुरू कर देते हैं। शुरुआत में नागा साधुओं को जप तप के साथ धुनि रमाना होता है। पीपल, बेर, खैर और भगवान शिव को अति प्रिय धतुरे के पत्तो से धुनि रमाते है। आंखों से कितने भी आंसू आने पर भी यह धूनी से टस से मस नहीं होते। इसके बाद धुने से जो राख निकलती है। उसे ही सारे नागा साधु अपने शरीर पर मल लेते हैं।
आज भी बड़ी संख्या में युवा नागा साधु बनते हैं परंतु नागा साधु बनने के लिए पात्रता परीक्षा बहुत कठिन होती है। इनकी कामदिया भंग कर दी जाती है और नागा 24 घंटों में मात्र एक बार ही भोजन कर पाते हैं, जो शायद आम आदमी नहीं कर सकता है। बता जाता है कि नागा साधुओं को ब्लैक कैट कमांडो से भी ज्यादा कठिन ट्रेनिंग दी जाती है। इन्हें भगवान शिव के सभी 51 तरह के शस्त्रों को चलाना सिखाया जाता है। इसके लिए इन्हें पहले मजबूत कर दिया जाता है, ताकि हर मौसम में इनकी दिनचर्या एक जैसी रहे। जिसमें इन्हें सुबह 3 बजे उठकर स्नान से लेकर तप करना होता है।
नागा साधु का अंतिम संस्कार
जिस तरह नागा साधु आम इंसान से अलग होकर अपना जीवन यापन करते हैं। उसी तरह जब इनकी मृत्यु होती है, तब इनका अंतिम संस्कार अलग ही तरीके से किया जाता है। आमतौर पर हिंदू धर्म में किसी भी इंसान की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर को जलाने की परंपरा है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि नागा साधुओं की मृत्यु के बाद इनके शरीर को जलाया नहीं जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि जब नागा साधु भी हिंदू धर्म का पालन करते हैं तो उनके शरीर को जलाया क्यों नहीं जाता है तो दोस्तों इसके पीछे भी एक ठोस कारण बताया जाता है जिसके अनुसार नागा साधु अपना सारा जीवन जंगलों या पहाड़ों पर ही बिता देते हैं और हमेशा अपने शरीर पर वे राख लपेटे हुए रखते हैं यदि मरने के बाद जब उनका शरीर जला दिया जाएगा तो इससे उनका और उनके आराध्य दोनों का अपमान होगा ऐसे में जब इनकी मृत्यु होती है तो उसके बाद इन्हें भू समाधि देकर इनका अंतिम संस्कार किया जाता है। हालांकि नागा साधुओं को पहले जल समाधि दी जाती थी। लेकिन वर्तमान में नदियों का जल प्रदूषित होने के कारण अब इन्हें भू समाधि दी जाती है। नागा साधुओं को सिद्ध योग की मुद्रा में बैठाकर भू समाधि दी जाती है।
नागा साधुओ के अखाड़े
भारत में संतों के कुल 13 अखाड़े हैं, जिनमें से सात अखाड़े नागा साधु बनाते हैं।
पहला अखाड़ा - जूना अखाड़ा
यह सबसे पुराना और सबसे बड़ा अखाड़ा माना जाता है। इसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में की थी। यह शैव परंपरा से जुड़ा है।
दूसरा अखाड़ा - निर्वाणी अखाड़ा
यह अखाड़ा वैष्णव परंपरा से संबंधित है। इसमें भगवान विष्णु और उनके अवतारों की पूजा की जाती है। इसकी परंपरा ब्रह्मचर्य और भक्ति पर आधारित है।
तीसरा अखाड़ा - निर्जन अखाड़ा
यह अखाड़ा भी शैव परंपरा का हिस्सा है। इसके साधु कठिन तपस्या और ध्यान में समय बिताते हैं।
चौथा अखाड़ा - महानिर्वाणी अखाड़ा
यह अखाड़ा शैव और वैष्णव दोनों परंपराओं को समेटे हुए हैं। इसके साधु अपने गहरे ध्यान और योग के लिए जाने जाते हैं।
पांचवा अखाड़ा - आवाहन अखाड़ा
यह अखाड़ा शैव परंपरा का हिस्सा है। इसमें भगवान शिव के घोर साधकों का समावेश होता है।
छठा अखाड़ा - आनंद अखाड़ा
यह अखाड़ा वैष्णव परंपरा का अनुसरण करता है। इसमें भगवान विष्णु के भक्त शामिल होते हैं। इसका उद्देश्य भक्ति और साधना के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करना है।
सातवां अखाड़ा - अटल अखाड़ा
यह अखाड़ा शैव परंपरा से संबंधित है। इसकी परंपरा आदि गरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित की गई थी। इसके साधु भगवान शिव के प्रति समर्पित होते हैं।
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By Anil Paal
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