भूख, रोटी, क्रांति इन तीन शब्दों के परम्यूटेशन, कॉमिनेशन से न जाने कितनी कविताएं और कहानियां लिखी गई हैं। कहानियां जो कभी काल्पनिक होती हैं, कभी असली। हालांकि कल्पना और असलियत के बीच कुछ कहानियां ऐसी भी होती हैं जिन्हें इन दोनों कैटेगरी में खड़ा नहीं किया जा सकता। 1857 की क्रांति (Revolution of 1857) पर जब भी चर्चा होती हैं तो हमें याद आते हैं मंगल पांडे। ब्रिटिश सेना में भर्ती भारतीय सैनिकों को एनफील्ड राइफल में इस्तेमाल करने के लिए एक कारतूस दिया गया था। अफवाह फैल गई कि कारतूस में सूअर और गाय की चर्बी मिली हुई है। यहां से विरोध की एक चिंगारी सुलगी और देखते-देखते पूरे देश में फैल गई लेकिन कैसे? चिट्ठी ना कोई संदेश ना तार ना टेलीफोन ये हुआ कैसे? यह सब हुआ था एक रोटी कि वजह से। रोटी जो चूल्हे की आग अपने साथ लिए चली और अंग्रेजों के कूल्हे सेक दिए। आज के लेख में जानेंगे कहानी 1857 के आंदोलन और रोटी की।
1857 की क्रांति का राज़, जो सुलझ नहीं पाया
अलसाई रातों का अंधेरा, झिंगुर की किट-किट और मंद हवा के शोर से गुजरता एक चौकीदार अचानक किवाड़ खट-खटाता है और रोटी देकर चला जाता है। ताज्जुब की बात है कि यह एक रात की घटना ना नहीं थी बल्कि ऐसा रोजाना हो रहा था। यह बात है साल 1857 की।
1857 की क्रांति (Revolution of 1857)
मई का महीना था। मेरठ छावनी से क्रांति की शुरुआत हुई। इससे कुछ महीने पहले हालांकि भारत में एक अजीब फिनोमिना देखा जा रहा था। ईस्ट इंडिया कंपनी के आर्मी सर्जन गिलबर्ट हेडो ने मार्च 1857 में अपनी बहन को एक लेटर लिखा। जिसमें उन दिनों भारत में चल रही रोटी की मिस्ट्री का जिक्र मिलता है। उन्होंने यह लेटर में लिखा यहां हजारों की संख्या में लोग एक दूसरे को रोटी बांट रहे हैं। किसी को नहीं पता कि यह कहां से किसने और क्यों शुरू किया। यह कोई धार्मिक परंम्परा है या कोई सीक्रेट सोसाइटी, कुछ नहीं पता। रोटियां एक गांव से दूसरे गांव में भी भेजी जा रही थी। कोई आदमी आता गांव के प्रधान को रोटियां सौंप देता, जो आगे के गांव में कुछ और रोटियां भेज देते। कभी-कभार तो रोटियों के साथ कमल के फूल और बकरे का मांस भी होता था। इन सबके साथ एक संदेश भी होता था। रोटी मिली तो आगे बढ़ाओ जिसे रोटी मिलती वो आगे पांच रोटियां बढ़ाता। इस तरह रोटियों की एक चेन तैयार होने लगी। इस काम में केवल आम आदमी नहीं बल्कि पुलिस, चौकीदार, वॉचमैन, प्रधान समेत कई कारोबारी तक शामिल थे।

रोटी अंदोलन का नेटवर्क
नेटवर्क ने पूरे उत्तर भारत को कवर करके रखा था। इंदौर, ग्वालियर से रोहिलखंड होते हुए अवध, इलाहाबाद तक। बताया जाता है कि रोटियां एक रात में 120 से 160 मील की दूरी तय कर रही थी। इतनी तेज तो उस समय ब्रिटिश मेल सर्विस भीरोटी नहीं थी। रोटियों का यह काफिला इतना लंबा था कि खबर अंग्रेजों तक पहुंचने में देर ना लगी। मथुरा के मजिस्ट्रेट मार्क थॉर्नहेल हुआ करते थे। एक बार रोटियों का एक बंडल उनकी मेज पर पहुंचा। थॉर्नहेल ने इस घटना की तह में जाने का फैसला किया। थॉर्नहेल ने ऐड़ी चोटी का जोर लगाया, रोटियां सच में बट रही हैं यह बात तो उन्होंने पक्की कर ली लेकिन इसके पीछे वजह क्या थी।यह थॉर्नहेल भी नहीं पता लगा पाए। लगाते भी कैसे? अधिकतर मामलों में तो रोटी बांटने वालों को खुद ही नहीं पता था कि रोटियां क्यों बंट रही हैं। रोटियों पर ना कोई संदेश था, ना कोई किसी से कुछ कहता इसलिए अंग्रेज काफी मशक्कत के बाद भी यह पता नहीं लगा पाए कि ये सब हो क्यों रहा है।
जॉन विलियम शेरर कि किताब में रोटी अंदोलन का जिक्र
बंगाल सिविल
सर्विस
के
एक
अंग्रेज
अफसर
जॉन
विलियम
शेरर
की
एक
किताब
है,
डेली
लाइफ
ड्यूरिंग
द
इंडियन
म्यूटन।
इसमें
शेरर
इन
रोटियों
का
जिक्र
करते
हुए
लिखते
हैं
की
कई
अफसरान
मान
चुके
थे
कि
ऐसा
महज
अधिकारियों
को
परेशान
करने
के
लिए
किया
जा
रहा
है।
खासकर
क्रांति
सुलगने
के
बाद
तो
अंग्रेजों
को
पक्का
यकीन
हो
गया
कि
यह
सब
उन्हें
चढ़ाने
के
लिए
हो
रहा
है।
इसे
आप
उस
जमाने
की
ट्रोलिंग
भी
मान
सकते
हैं।
पता
नहीं
ये
ट्रोलिंग
थी
या
नहीं
लेकिन
यह
बात
पक्की
है
कि
रोटी
आंदोलन
ने
अंग्रेजों
की
नाक
में
दम
कर
दिया
था।
इन
दिनों
तात्या
टोपे,
रानी
लक्ष्मीबाई,
बिहार
में
गोरिल्ला
युद्ध
के
महारथी
कुवर
सिंह,
अवध
में
बेगम
हजरत
महल,
कानपुर
में
नाना
साहेब
समेत
तमाम
नाम
थे,
जो
क्रांति
को
लीड
कर
रहे
थे।
इस
लड़ाई
में
रसत
पूरी
करने
का
काम
कर
रही
थी,
रोटी
आंदोलन
वाली
रोटियां।
क्रांतिकारी जब
लंबी
यात्रा
के
दौरान
सुस्ताने
के
लिए
गांव
कस्बों
में
रुकते
तो
इन्हें
वहां
खाने
के
लिए
रोटी
और
गुड़
मिलता।
रोटी
आंदोलन
का
शायद
यही
उद्देश्य
रहा
होगा
लेकिन
जैसा
हमने
शुरुआत
में
कहा
रोटी
आंदोलन
का
इतिहास
सच्चाई
और
कल्पना
का
मिक्सचर
है।
इसलिए
कई
अफवा
हैं,
कई
कंस्पिरेशन
भी
इससे
जोड़ी
जाती
हैं।

रोटियों को लेकर अफवाह (Rumor about Rotis)
कई भारतीय
आमजन
जब
समझ
नहीं
पाए
कि
रोटी
क्यों
बट
रही
है।
उनके
बीच
एक
अफवाह
चल
पड़ी।
कार्तूस
में
सूअर
और
गाय
की
चर्बी
वाली
बात
पहले
भी
फैल
चुकी
थी।
इसी
के
तर्ज
पर
रोटियों
को
लेकर
भी
अफवाह
चली
कि
यह
काम
अंग्रेजों
का
ही
है।
अंग्रेज
आटे
में
गाय
और
सूअर
की
हड्डियां
पीसकर
मिला
रहे
हैं
और
उसी
आटे
की
रोटी
बटवा
रहे
हैं।
1757 प्लासी के युद्ध से रोटी आंदोलन का संबंध
रोटी आंदोलन
का
एक
रिश्ता
एक
भविष्यवाणी
से
भी
चोड़ा
गया।
दरअसल
1857 में प्लासी
की
लड़ाई
को
100 साल पूरे
हो
रहे
थे।
1757 में हुए
प्लासी
के
युद्ध
को
जीत
कर
ही
अंग्रेजों
ने
भारत
में
अपनी
जड़ें
जमाई
थी।
कई
लोग
मानते
थे
कि
एक
भविष्यवाणी
के
अनुसार
100 साल बाद
अंग्रेजों
का
सफाया
हो
जाएगा।
1857 आते-आते
यह
बात
खूब
फैली
ब्रिटिश
अधिकारियों
के
अनुसार
रोटी
आंदोलन
का
एक
रिश्ता
इस
भविष्यवाणी
से
भी
था।
रोटी आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष
ऐसा नहीं
है
कि
भारत
में
कुछ
बांटे
जाने
का
यह
पहला
अवसर
था।
1857 के आंदोलन
से
कई
जनजातियां
आदिवासी
भी
जुड़े
थे।
आदिवासियों
के
बीच
चीजें
बांटने
की
प्रथा
पुरानी
थी।
वो
विशेष
अवसरों
पर
पौधों
की
पत्तियां
नारियल
और
मिट्टी
के
बर्तन
बांटते
थे।
चीजें
या
भोजन
बांटना
आज
भी
काफी
सामान्य
है।
1857 में बस
इसी
प्रथा
का
इस्तेमाल
लोगों
को
एकजुट
करने
के
लिए
किया
गया
लेकिन
यह
बातें
अंग्रेजों
को
समझ
में
नहीं
आई।
खुद
को
सभ्य
गोरा
मानने
वाले
अंग्रेज
यह
मानने
को
तैयार
ही
नहीं
थे
कि
भला
रोटी
किसी
आंदोलन
का
हिस्सा
कैसे
हो
सकती
है।
इसके
लिए
कागज
तख्ती,
अखबार
को
आसानी
से
माध्यम
बनाया
जा
सकता
था।
1857 की क्रांति
दबाने
के
बाद
उन्होंने
लिखित
माध्यमों
पर
भी
बैन
लगाया
लेकिन
रोटी
को
बैन
लगाना
उनके
बस
में
नहीं
था।
इसलिए
रोटी
फैली
और
ऐसी
फैली
कि
अंग्रेजों
के
खिलाफ
पहले
बड़े
विद्रोह
का
हथियार
बन
गई।

विनायक सावरकर की किताब में रोटी आंदोलन का जिक्र
रोटी आंदोलन कितना महत्त्वपूर्ण और कारगर था। इसका पता इस बात से भी चलता है कि विनायक सावरकर की किताब इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857 में भी इसका जिक्र किया गया है। 1857 की क्रांति की चर्चा हम कई बार कर चुके हैं। बैरकपुर और मेरठ में बगावत के बाद हजार की संख्या में सैनिकों ने दिल्ली पँहूचे। सरकारी दफ्तर जलाए गए। मुगल सम्राट बहादुर शाह को दिल्ली का सम्राट घोषित किया गया। करीबन एक साल तक ब्रिटिश हुकूमत कमजोर पड़ी रह गई लेकिन उन्होंने वापस सत्ता पर कब्जा जमा लिया। यह कहानी कई बार सुनाई जा चुकी है लेकिन इसके छोटे-छोटे पक्ष आज भी बताए जाने बाकी हैं। रोटी आंदोलन की कहानी ऐसा ही एक पक्ष है।
Anil Paal
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